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पाभाव
दृष्टि
(1) स्वमत की शालीन प्रस्तुती
कभी-कभी उसके मत की स्थापना व्यावहारिक (2) स्वमत के प्रति दुराग्रह का अभाव जगत् में सबलरूपेण नहीं हो पाती है । 'नयवाद' (3) अन्यमत के प्रति विनम्र एवं विधेयात्मक का यह पक्ष अवश्य ही व्यावहारिक जगत् में निर्बल
प्रतीत होता है कारण कि व्यक्ति के लिये यह (1) नयवाद का स्पष्ट अर्थ है कि अनन्त आवश्यक है कि वह स्वमत की स्थापना दृढ़ात्मक धर्मात्मक (अनन्तपर्यायात्मक) वस्तु के एक ही शब्दों से करे तभी उसके मत का महत्व है अन्यथा धर्म की सांगोपांग प्रतीति । इसे ही 'विकलादेश' नहीं । जबकि 'नयवाद' इस प्रकार के दृष्टिकोण शान कहा गया है । यह ज्ञान वस्तुतः वस्तु के प्रति का पक्षधर नहीं है । व्यक्ति का दृष्टिकोण है जिसके आधार पर व्यक्ति किसी पदार्थ के विषय में भेद पृथक्करण की
(3) 'नयवाद' का पक्षधर वस्तु संबंधी
(9) 'न प्रक्रिया को कार्यान्वित करता है। इस प्रक्रिया से एकांश ज्ञान की प्रतीति कर लेने पर शांत नहीं व्यक्ति अपने लक्ष्य संबंधी ज्ञान का मतिकरण होता है अपितु वस्तु का अन्य धर्मों से परिचय करता है। इसी भेदपृथक्करण? प्रक्रिया के द्वारा प्राप्ति हेतु सदा जागरूक तथा उत्सुक रहता है। ही व्यक्ति के सापेक्षज्ञान का परिचय मिलता है। नयवादी परमत खंडन में नहीं अपितु स्वमत मंडन किसी विशेष दृष्टिकोण को स्वीकारने का अर्थ यह में विश्वास करता है तथा सदा ज्ञान-पिपासु कदापि नहीं है कि वस्तु संबंधी अन्य के मत का रहता है । नयवादी अपलाप कर रहा है । "नयवादी” तो वस्तुतः स्वमत के शालीन प्रस्तुतिकरण में ही
अनेकान्तवाद -'एकान्त' के विवेचन पश्चात् विश्वास करता है । उसके मतानुसार वह सत्य के
पावश्यक है कि 'अनेकान्त' का स्वरूप स्पष्ट किया जितने निकट है उतना ही अन्य व्यक्ति भी । यह
जाये । वैसे तो शब्द अनेकान्त ही स्वअर्थ की भिन्न बात है कि सापेक्षता के कारण 'नयवादी'
अभिव्यक्ति कर देता है फिर भी विवेचन आवश्यक वस्तु की सम्पूर्ण सत्ता का उद्घाटन नहीं करता है---एकान्त के समान अनेकान्त भी वस्तु के प्रति है किन्तु जिस दृष्टिकोण के प्रस्तुतिकरण का कार्य व्यक्ति का ज्ञानात्मक दृष्टिकोण है । सामान्य भाषा उसने किया है वह रहता है वस्तु की यथार्थ सत्ता में एकान्त का अर्थ है जिसमें वस्तु के किसी एक अन्त में । अतः यथार्य नयवादी के लिये यह आवश्यक
ATM का, धर्मविशेष का, एक पक्ष विशेष का आग्रह न है कि वह केवल स्वमत प्रतिपादन का ही कार्य हो अपितु सभी धर्मों का, सभी पक्षों का समन्वित करे न कि अन्यमत का खण्डन ।
दृष्टि कोण हो । अन्य शब्दों में 'अनेकान्त' को विचारों
का अनाग्रह कह सकते हैं । 'अनेकान्त' अनन्त(2) 'नयवाद' का सिद्धान्त एकांशभूत ज्ञान धर्मात्मक वस्तु विशेष के प्रति व्यक्ति की विधेयात्मक (विकलादेश ज्ञान) का सिद्धान्त अवश्य है किन्तु दृष्टि का समन्वित रूप है, सुस्पष्ट भावनाओं का कदाग्रह दृढ़वादिता का सिद्धान्त नहीं है । नयवादी पुज है, विचारों का समूह है, और व्यक्ति के पर यह आक्षेप भी नहीं लग सकता कि नयवादी सोचने समझने की कदाग्रह रहित निष्पक्ष पद्धति वस्तु के एकांशभूत ज्ञान (विकलादेश ज्ञान) है । यह अनेकान्त, जब वाणी का आश्रय ले लेता को ही वस्तु का सकलादेश ज्ञान मान कर ज्ञान के है, जब अभिव्यक्ति का शालीन परिधान पहिन लेता प्रति मौन हो जाता है । यह बात भिन्न है कि है, जब भाषा का बाना धारण कर लेता है तब 'नयवादी' के मात्र मत प्रस्तुतिकरण के कारण वह स्याद्वाद बन जाता है।
महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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