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__अनेकान्त वस्तु के अनन्तधर्मात्मक धर्मों के अभिव्यक्त मत का कदापि खंडन न करे अपितु पर आधारित है। व्यक्ति अपनी अपनी वस्तु के प्रति विधेयात्मक दृष्टि अपनाये। तभी दृष्टि से वस्तु के स्वरूप का प्रतिपादन अनेकान्तवादी वस्तु में निहित धर्मो का यथार्थ ज्ञान करता है । अतः , कहा जा सकता है कि प्राप्त कर सकता है। 'प्रत्येक वस्तु का भिन्न-भिन्न दृष्टिबिन्दुओं से (2) अनेकान्तवादी जो मत सुनता है उसका वह विचार करना, भावना बनाना, मत स्थिर करना चिन्तन करता है और सभी सुने मतों का समन्वय ही अनेकान्त है। व्यक्ति अनेकान्त भावना उसी करने का प्रयास भी करता है । इसका कारण यह है समय बना सकता है जब वह पहिले वस्तु के प्रति कि उसका वस्तु के प्रति दृष्टिकोण एकांशभूतज्ञान: कदाग्रह रहित विधेयात्मक एकान्त दृष्टि बनाये। न रहकर विशाल क्षेत्रीय हो जाता है । वस्तु को अतः अन्य शब्दों में व्यक्ति के एकांशभूत ज्ञान के हर बिन्दु से देखने-परखने की क्षमता उसमें आ विस्तृतीकरण को ही अनेकान्त कह सकते हैं। जाती है। विरोध शांत हो जाता है । अनेकता में अनेकान्त नयवादी को ज्ञान की विशालता की ओर एकता, विभिन्नता में समरसता के दर्शन वह करने ले जाता है । 'अनेकान्तवाद', नयवाद का विरोधी लगता है । नहीं है अपितु नयवादी के एकपक्षीय विचार एवं अब यह प्रश्न सहज रूप में उपस्थित होता है भावना को समन्वयवाद के धरातल पर एकसूत्र में कि क्या वर्तमान विचार स्वातन्त्र्यवादी भौतिक पिरो देता है । भिन्न 2 विचार-सरणी को एकात्म- विलास के युग में भी जैन दर्शन प्रतिपाद्य नयवाद कता का बाना पहिना देता है । वैयक्तिक भावना की और अनेकान्तवाद युगानुरूप हो सकते हैं । यदि हां, परिधि को त्याग कर व्यक्ति को उदारचेता बना तो किस सीमा तकदेता है। अनेकान्तवाद के उपरोक्त स्वरूप की दोनों सिद्धान्त स्थूलतः वस्तु की सत्ता से स्पष्ट अभिव्यक्ति हेतु अनेकान्तवाद का विश्लेषण
संबंधित हैं, परन्तु यथार्थरूप में उनका निकट अधोलिखित बिन्दुओं के आधार पर किया जा
संबंध व्यक्ति की ज्ञान-शक्ति ही है । वस्तु एक है सकता है:
(यद्यपि अनन्तधर्मात्मक है) फिर भी दो व्यक्ति : (1) सभी मतों के प्रति विधेयात्मक दृष्टि- वस्तु विशेष को एक ही दृष्टिकोण से देखें यह कोण
आवश्यक नहीं है । इन्हीं विभिन्न दृष्टिकोणों का (2) समन्वयभाव की प्रक्रिया
परस्पर समन्वय ही अनेकान्तवाद है । अतः कहा जा
सकता है कि आधुनिक युग में भी सामाजिक एवं अनेकांत का तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि व्य- राजनैतिक स्तर पर व्याप्त विभिन्न मतों के समन्वक्ति स्वमत को ही अपने ज्ञान की इति-श्री समझकर यीकरण की प्रक्रिया की जाये तो व्यक्ति की शक्ति कूपमण्डूक हो जाये अपितु अन्य वैचारिकों के मत को का अपव्यय रोका जा सकता है। युवाशक्ति का भी शालीनतापूर्वक सुने तथा चिन्तन करे। अन्य विध्वंसक रूप संगठनात्मक व निर्माणात्मक हो व्यक्ति का वस्तु के प्रति जो अभिमत है वह व्यक्ति सकता है । विरोध के स्थान पर सहिष्णुता स्थान विशेष10 के मत से चाहे साम्य न रखे फिर भी अन्य ले सकती है । कूपमण्डूकता व हठवादिता के स्थान तम को सुनना आवश्यक है कारण कि हर व्यक्ति का पर व्यक्ति ज्ञानेच्छु व विनम्र हो सकता है । अन्य ज्ञान सापेक्ष होता है । अतः अनेकान्तवादी का यह के प्रतिपाद्य मत को जानने पर व्यक्ति स्वमत का परमकर्तव्य हो जाता है कि वह किसी भी व्यक्ति पुनर्मूल्यांकन कर सकने का लाभ ले सकता है ।
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महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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