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नयवाद । अनेकान्तवाद को वस्तुत: नयवाद की अगली सीढ़ी कहा जा सकता है । वस्तु चूंकि श्रनन्तधर्मात्मक है अतः व्यक्ति वस्तु को अपनी ज्ञान- परिधि में देखता है और उसे वस्तु का प्रभीष्ट धर्म ही प्रकट होता है । इस प्रकार व्यक्तियों के दृष्टिकोण में पर्याप्त अन्तर होने से भिन्न-भिन्न व्यक्तियों की दृष्टि में भिन्न-भिन्न धर्मं प्रकाशित होते हैं । अतः वस्तु के एक धर्म की सत्यता उतनी ही सत्य है जितनी की अन्य धर्मों की। इस प्रकार वस्तु की सत्यता को प्रकाशित करने की प्रक्रियाक्रम में जैन दर्शन ने नयवाद व अनेकान्तवाद दर्शन जगत् को दिये हैं जिन की न केवल दार्शनिक जगत् में ही अपितु व्यावहारिक जगत् में भी उपादेयता है ।
नयवाद एवं अनेकान्तवाद की उपयोगिता का मूल्यांकन करने के लिये उनके स्वरूप को भी समझना आवश्यक है । ग्रतः यहां उनका स्वरूप विवेचन संक्षिप्त में किया जा रहा है ताकि जैन दर्शन की आधुनिक युग को मूल्यवान् देन का स्वरूप स्पष्ट हो सके ।
नयवाद -- जैन दर्शन के अनुसार वस्तु अनन्तधर्मात्मक है । वस्तु के समस्त धर्मों का यथार्थ ज्ञान केवल उसी व्यक्ति विशेष को संभव है जिसने केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया है। किन्तु आज दिग्भ्रमित मानव में इतना सामर्थ्य कहां है कि वह वस्तु के समस्त धर्मों को एक ही साथ ग्रात्मसात् कर सके । ज्ञान की संकुचित सीमाओं के कारण ही व्यक्ति एक या कुछ धर्मों का ही ज्ञान प्राप्त कर लेना वयस्कर समझता है अतः उसका ज्ञान प्रांशिक या एकांगी होता है। जैन दर्शन वस्तु के इस प्रांशिक ज्ञान को ही 'नय' नाम से प्रभिहित करता है । वस्तु चूंकि अनन्तधर्मात्मक है अतः प्रत्येक धर्म विशेष के निरूपण करने के कारण
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नयों की संख्या भी अनन्त है से उसके सामान्यतः दो भेद
परन्तु विवेक दृष्टि मान्य है :
( 1 ) द्रव्यार्थिक नय ( 2 ) पर्यायार्थिक नय
तो
किसी भी वस्तु में दो धर्म संभव हैं ( 1 ) एक वह जिसके कारण वस्तु के विविध परिणामों के बीच एकता बनी रह सकती है। इसकी ही संज्ञा द्रव्यार्थिक नय है | ( 2 ) दूसरे वे धर्म जो देशकाल के कारण किसी वस्तु में उत्पन्न हुआ करते हैं । इन विशेष धर्मों के निरूपण को ही पर्यायार्थिक नय संज्ञा दी गई है। प्रथम नय तीन प्रकार का है तथा द्वितीय नय चार प्रकार का है । इन दोनों का समायोजन करने पर 'नय' के सात प्रकार किये जाते हैं । ( 1 ) नैगम नय ( 2 ) संग्रह नय ( 3 ) व्यवहार नय (4) ऋजुसूत्र नय ( 5 ) शब्द नय (6) समभिरूढ़नय (समधिरूढ़ नय) तथा ( 7 ) एवंभूतनय ।
इनके अतिरिक्त तत्वों के स्वरूप विवेचनार्थ 'नय' के दो अन्य भेद भी दार्शनिकों द्वारा मान्य हैं :
( 1 ) निश्चय नय ( 2 ) व्यवहार नय |
निश्चय नय के माध्यम से तत्वों के वास्तविक स्वरूप तथा उसमें निहित सभी गुणों का निर्धारण होता है जबकि व्यावहारिक नय के द्वारा तत्वों की सांसारिक उपादेयता पर विचार किया जाता है ।' नय' के इसी भेद के कारण इसके संबंध में प्रचलित भ्रान्तियों का निराकरण संभव हो सका है। वस्तुतः वर्तमान परिवर्तनशील युग में 'नय' का व्यावहारिक रूप ही नये युग के नये मूल्यों का संवाहक है अन्यथा अन्य दार्शनिक सिद्धान्तों के समान ही यह भी केवल बौद्धिक प्राणायाम का सिद्धान्त बन जाता है । 'नयवाद' के उपरोक्त स्वरूप विवेचनार्थ 'नयवाद' का विश्लेषरण अधोलिखित बिन्दु पर किया जा सकता है ।
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महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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