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मिथ्यात्त्व बन्ध; सम्यक्त्व मुक्ति
• श्री भगवानस्वरूप जैन जिज्ञासु'
- आगरा
मिथ्या-तम ने ही जीवों को, है अनादि से भरमाया । मिथ्या-तम ने किया किनारा, जी उजियारा जब पाया ।।
काम-क्रोध-मद-लोभ-मोह का, चक्कर है अति दुखदायी । इस चक्कर में ही पड़ कर के, बुद्धि जीव की चकरायी ।। भौंरे सा मन पागल हो कर, कमल-कैद में फंसता है । क्रूर काल रूपी कुञ्जर के, मुख प्रवेश कर मरता है ।।
पथ इस मरने से बचने का, जिन-शासन ने दरशाया। मिथ्या-तम ने किया किनारा, जी उजियारा जब आया ।
निज स्वरूप को भूल जीव ने, पर पदार्थ ही अपनाए। राग-द्वेष-ममता-माया ने, सभी जीव भव भटकाए । सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चरण ने, किन्तु सुधा जब बरसाई । भव-भव के दुख दूर हुए तब, नौका भव-तट पर पाई ।।
जिनवर, जिनवाणी, गुरु जन ने, शुद्धातम-रस बरसाया। मिथ्या-तम ने किया किनारा, जी उजियारा जब आया ।।
संवर-कवच धार भव्यों ने, कर्मास्रव सारे टारे । शुक्लध्यान, सम्यक् तप द्वारा, कर्म पूर्वले सब जारे ।। यों भव्यों ने ही निज पद से, पर पद सकल समाप्त किया। प्रात्म द्रव्य ने आत्म-लीन हो, महा मुक्ति-पद प्राप्त किया।।
मुक्ति-प्राप्ति ही लक्ष्य जीव का, प्रात्मधर्म ने बतलाया। मिथ्या-तम ने किया किनारा, जी उजियारा जब आया ।।
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महावीर जयन्ती स्मारिका 16
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