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साधना की विराटता-वीतरागता
किसी भाग्य का लेख नहीं, अपितु स्वयं की श्रमभ० महावीर की तपश्चर्या की उपलब्धि थी- शील साधना है, जिससे वह परमात्मा को उपलब्ध वीतरागता । वीतरागी-जहां कर्तृत्व और भोक्त्त त्व होता है। इतनी बड़ी आत्म-स्वतन्त्रता की स्वीकृति का भाव विसर्जित हो जाता है-जहाँ न पाने की और महत्ता की प्रतिष्ठा भ० महावीर ने दी। कुछ वांछा न अवांछा। बिलकुल बेशर्त स्थिति । जिनकी अखण्ड तपस्या में सारे सम्मोहन निःशेष हो (2) दूसरी देन है-अनेकान्त और स्याद्वाद । चुके थे । इसीलिए न तो स्थाणुभद्र और भवरुद्र के इस समन्वय एवं कल्याणी दृष्टि ने सम्प्रदायवाद के घोर उपसर्ग उन्हें भयभीत कर सके और न अप्सरामों । मूल पर कुठाराघात कर धर्म-सहिष्णुता की एक नई के मोहक राग भाव नृत्य उन्हें डिगा सके । वे अपनी । बात दी। सम्प्रदाय जो किसी सत्य की अपेक्षा पूरी समग्रता में जिये । जो बाहर वही भीतर । कुछ मान्यता विशेष पर टिका होता है और पूर्वाग्रहों की भी खण्डित नहीं रहा उनके जीवन में । आत्म- चौखटों में जड़ा होता है। यह सहगमन नहीं अनुअन्वेषण के मूल्य पर उन्होंने भोग की दुर्घटनामों गमन चाहता है। इसके विपरीत भ० महावीर ने को योग की निरापद शक्ति में रूपान्तरित किया। अनुगमन नहीं, सहगमन की बात की। इसलिए न और एक दिन इसी योग से ग्रन्थियों को काटते काटते उन्होंने अपने आगे किसी को रखमा पसंद किया निर्ग्रन्थ बन गये । निर्ग्रन्थ-जो किसी से बंधा नहीं (कोई गुरु नहीं बनाया) और न ही अपने पीछे स्वयं से भी नहीं। और यही निर्ग्रन्थ वीतरागता किसी को रखना पसंद किया (अनुयायी नहीं बनाये)। उनकी विमुक्ति बन गयी।
अनेकान्त के दर्शन में अनुगमन के लिए कोई प्रव
काश नहीं। कोई बंधे-बंधाये रास्ते पर चलकर महावीर की दो बड़ी उपलब्धियां
मुक्ति का श्रेय प्राप्त नहीं कर सकता। भ० महावीर (1) धर्म-विज्ञान की भांति कार्य कारण ने जो भी सत्य कहा-एक टूक उत्तर देकर नहीं सिद्धान्त पर टिका है । बाहर जो है-उसकी खोज कहा, अपितु सापेक्ष दृष्टि से कहा। इस प्रमोध विज्ञान है। भीतर जो है उसकी खोज धर्म है। मूलमन्त्र के सामने निरपेक्ष सत्य का दावा डगमगा विज्ञान कहता है-हमें भगवान से लेना-देना नहीं, गया। आज का विज्ञान भी सापेक्ष के भवन पर हम तो प्रकृति के नियम खोजते हैं। यही बात भ० खड़ा है। महावीर ने चेतना विज्ञान (धर्म) के लिए कहींउन्होंने आत्म-पुरुषार्थ की प्रतिष्ठा में नियन्ता को वस्तुतः वही तत्त्व सम्यक् है जो अनेकान्त के विदा किया और कहा कि हम जो कर रहे हैं वही आलोक में दृष्ट है। वही आचार सम्यक् है जो भोग रहे हैं। यह अच्छा या बुरा भोगना किसी अनेकान्त के आलोक में आचरित है। इस अनेनियन्ता का दिया नहीं बल्कि हमारे कर्म का प्रति- कान्त के निरूपण की भाषा-स्याद्वाद है। अनेफलन है। उन्होंने कहा-धर्म कोई परिभाषा या कान्त की गोद में जहां तत्त्ववाद और प्राचार-शास्त्र विचार नहीं। यह तो वह प्रयोग है जो जीवन की सम्यक्परक समन्वित दृष्टि को प्राप्त करके धर्म प्रयोगशाला में सम्पादित होते हैं। यह प्राणियों के सहिष्णुता सम्वद्धित होती है, वहाँ स्याद्वाद के दुःख के हेतुओं को दूर करने का उपचार है । जीव द्वार से सम्भावनाओं और शक्यताओं का मार्ग स्वयं अपना नियन्ता है। वह स्वयं साधन और प्रशस्त ही नहीं होता अपितु एक परम सत्य तक स्वयं साध्य है । मानवीय व्यक्तित्व का चरम विकास पहुँचने में वाहक का कार्य करता है।
महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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