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महावीर ने किसी नए धर्म की स्थापना नहीं की। कोई नई बात भी उन्होंने अपने उपदेशों में नहीं कही। जो कुछ उन्होंने कहा, आचरण किया वह नित्य और शाश्वत है। प्राज भी उसका उतना ही महत्व है जितना कि महावीर के समय या उससे भी पहले था
और भविष्य में भी उसकी इस महत्ता में कोई कमी आने वाली नहीं है। भेद केवल यह होता है कभी अधिकांश जनता धर्म की अोर प्रवृत्त होती है और कभी उससे विमुख। ऐसे समय विपथगामियों को सत्पथ पर प्रारूढ़ करने के लिए उपदेष्टा की, मार्गप्रदर्शक की पावश्यकता होती है। महावीर के समय भी कुछ ऐसी ही परिस्थितियां थीं। मानव अपना कर्तव्यपथ भूल चुका था, उससे च्युत हो गया था। ऐसे समय महावीर ने उन्हें सन्मार्ग की ओर प्रवृत्त करने का महान कार्य किया। यह कार्य उन्होंने खण्डनात्मक तरीके से नहीं किया अपितु एतदर्थ उन्होंने समन्वयात्मक मार्ग अपनाया। कैसे ? यह विद्वान् लेखक की इन पंक्तियों में पहिये।
-प्र० सम्पादक
भगवान महावीर और उनके धर्म की
समन्वयात्मक पष्ठभूमि
श्री रिषभदास राका सम्पादक-जैन जगत, बम्बई,
पूना भगवान् महावीर ने जो कुछ कहा था, मानव- किया जाय । परायापन ही दुःख का कारण है इसमात्र के लिए कहा था। वे किसी एक धर्म, जाति लिये सुख की चाह हो तो सबके साथ प्रात्मवत् या सम्प्रदाय के लिये नहीं थे और उनके उपदेश भी व्यवहार करो। तुम्हारा शत्रु बाहर नहीं है । तुम किसी धर्म जाति या सम्प्रदाय के दायरों में नहीं। ही स्वयं तुम्हारे शत्रु और मित्र हो। तुम्हारे सुखउन्होंने स्वयं इस बात को स्पष्ट किया है कि मैं जो दुःख के कर्ता, अपने भाग्य के विधाता मात्र तुम्हीं कह रहा हूं वह ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है, मेरे हो। पहले भी अनेकों ने कहा, आज भी कह रहे हैं और भविष्य में भी कहेंगे।
सभी में प्रात्मा से परमात्मा, नर से नारायण
एवं जीव से शिव बनने की क्षमता है । जरूरत है __ वे कहते हैं-"हर प्राणी सुख से जीना चाहता सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक् चारित्र धारण है, दुःख या मृत्यु किसे भी प्रिय नहीं है इसलिये करने की । जब अपने आप और अपने सत्कर्मों पर जिस तरह के व्यवहार की दूसरों से अपेक्षा रखते दृढ़ निष्ठा हो जाय, ठीक विवेक अथवा ज्ञान आ हो, वैसा ही व्यवहार दूसरों से करो।"
जाय तो सम्यक आचार सहज है। क्योंकि जीवन
के बहुत सारे दुःख अज्ञान के कारण हैं । इस निष्ठा उनकी दृष्टि के अनुसार सुख का सच्चा मार्ग के अभाव में है कि सद् का परिणाम अच्छा ही यही है कि दूसरों के साथ प्रात्मीयता का व्यवहार होने वाला है । वस्तु का स्वभाव धर्म है। तब सद् महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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