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भगवान् महावीर की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उन्होंने तब तक कोई उपदेश दूसरों को नहीं दिया जब तक कि उन्होंने स्वयं अपने आप में वह योग्यता प्राप्त न कर ली, स्वयं उन्होंने वह प्राप्त न कर लिया जिसकी प्राप्ति के लिए वे दूसरों को उपदेश देते थे तथा जब तक वे उस मार्ग पर न चल पड़े जिसकी ओर अग्रसर होने हेतु वे दूसरों से अपेक्षा करते थे। किसी के अनुयायी होने का अर्थ है उसके बताए मार्ग पर चलना, उसके बताए कर्तव्य कर्म को अपने जीवन में उतारना । हम भगवान् महावीर के अनुयायी अपने आपको कहते हैं। उनका २५०० वां निर्वाण वर्ष भी हमने खूब जोर-शोर से, आडम्बर से मनाया है किन्तु क्या केवल इतने मात्र से ही हम उनके सच्चे अनुयायी होने का दावा कर सकते हैं और क्या हम अपने अभीष्ट की प्राप्ति में सफल हो सकते हैं ? यह है वह प्रश्न जो विद्वान् लेखक ने अपने इस निबंध में संक्षिप्त किन्तु प्रभावी रूप से उठाया है ।
श्रात्मोत्सर्गी - कुमार वर्धमान जन्मे तो थे कुण्डलपुर के समृद्ध राजघराने में और उन्हें संसार की सभी सुख-सुविधाएं प्राप्त भी थीं परन्तु उन्होंने अपने आत्मोत्सर्ग के मार्ग में उन सब को बाधक माना । कोई लगाव नहीं हुम्रा उन्हें उनके प्रति । वे तो जन्मजात विरागी थे । सदा श्रात्मलीन रहे । अट्ठाईस वर्ष के होते-होते तो उन्होंने अपनी सारी निजी सम्पत्ति जरूरतमन्द लोगों में बांट दी । जो हम दुनियां के लोगों के लिए सम्पत्ति है और जिसे बटोरने में हम रात-दिन लगे रहते हैं, चाहे कैसे भी घृणित मार्ग से वह क्यों न आए राजकुमार वर्धमान ने उसे विपत्ति मानकर त्याग दिया, और पूर्ण अपरिग्रही हो वे तीस वर्ष की भरी जवानी में चल दिये एक दिन स्वयं ही दीक्षित होकर आत्मोत्सर्ग की खोज में जंगल की ओर ।
सर्वज्ञता की खोज में वे बारह वर्ष तक घोर तप करते रहे और उनके जन्म-जन्मान्तर के
महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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प्र० सम्पादक
आत्म-द्रष्टा महावीर की जीवन-दृष्टि
- श्री प्रतापचन्द्र जैन २१ / ६३ धूलियागंज, प्रागरा
बंधे कर्म झड़ते गये । नये कर्मों का श्राना एकदम रुक गया । उनके ऊपर भयंकर कठोर उपसर्ग आये भी परन्तु उनके कषायहीन दृढ़ संकल्प के आगे, क्षमाभाव की अपार शक्ति के कारण वे सब धराशायी होते चले गये । उनकी श्रात्मा निरन्तर तपती और निखरती गई और चारों घातिया कर्मों का नाश होने पर एक दिन वह पूर्ण शुद्ध-बुद्ध हो गई। उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया और वे सर्वज्ञ महावीर हो गये ।
जगत् के जीवों को उपदेश देने से पहले-उन्होंने अपने को उसके योग्य बनाया । सर्वज्ञता प्राप्त कर लेने के बाद भी अपनी दिव्य देशना द्वारा जगत् के प्राणियों को आत्मोद्धार का मार्ग सुलभ करने से पूर्व उन्होंने एक और अद्भुत काम किया । एक ऐसे व्यक्ति को उन्होंने अपना पट्टधर चुना जो उनका घोर विरोधी था । वह था वेद पारंगत यज्ञवादी समर्थ ब्राह्मण महापण्डित इन्द्रभूति गौतम ।
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