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दूसरे को पूरी तरह निगल जाने की तैयारी कर के प्रति उसका उपेक्षा भाव है। वैज्ञानिक प्रगति रहे हैं । एक भोगाकांक्षा और तृष्णा की दौड़ में से समाज के पुराने मूल्य ढह चुके हैं और नये पागल है तो दूसरा पेट की ज्वाला को शांत करने मूल्यों का सर्जन अभी हो नहीं पाया है। आज हम के लिए व्यग्र और विक्षुब्ध । अाज विश्व में मूल्य-रिक्तता की स्थिति में जी रहे हैं और वैज्ञानिक त नीक और आर्थिक समृद्धि की दृष्टि मानवता नये मूल्यों की प्रसव-पीड़ा से गुजर रही है। से सबसे अधिक विकसित राष्ट्र यू. एस. ए. मान- आज वह एक निर्णायक मोड़ पर खड़ी हुई है, सिक तनावों एवं आपराधिक प्रवृत्तियों के कारण उसके सामने दो ही विकल्प हैं या तो पुन: अपने सबसे अधिक परेशान है। इस सम्बन्धी उसके प्रकृत आदिम · जीवन की ओर लौट जावे या अांकड़े चौंकाने वाले हैं। आज मनुष्य का सबसे फिर एक नये मानव का सृजन करे, किन्तु पहला बड़ा दुर्भाग्य तो यह है कि इस तथाकाथित सभ्यता विकल्प अब न तो सम्भव है और न वरेण्य । अतः के विकास के साथ उसकी आदिम युग की एक आज एक ही विकल्प शेष है-एक नये आध्यात्मिक सहज, सरल, एवं स्वाभाविक जीवन-शैली भी उससे मानव का निर्माण; अन्यथा आज हम उस कगार छिन गई है, अाज जीवन के हर क्षेत्र में कृत्रिमता पर खड़े हैं, जहां मानव जाति का सर्वनाश हमें और छद्मों का बाहुल्य है। मनुष्य प्राज न तो पुकार रहा है । अपनी मूल प्रवृत्तियों एव वासनाओं का शोधन या उदात्तीकरण कर पाया है और न इस तथाकथित प्राइये देखें इस नये आध्यात्मिक मानव क सभ्यता के आवरण को बनाये रखने के लिए उन्हें सृजन में महावीर के सिद्धान्त हमारा क्या मार्ग सहज रूप में प्रकट ही कर पा रहा है। उसके दर्शन कर सकते हैं ? भीतर उसका 'पशुत्व' कुलाचें भर रहा है, किन्तु
__ यथार्थ जीवन दृष्टि का निर्माण बाहर वह अपने को 'सभ्य' दिखाना चाहता है। अन्दर वासना की उद्दाम ज्वालाएँ और बाहर
जैन धर्म कहता है कि इस निर्णायक स्थिति सच्चरित्रता और सदाशयता का छद्म जीवन, यही
में मानव को सर्वप्रथम यह तय करना है कि आज के मानस की त्रासदी है, पीड़ा है। आसक्ति,
प्राध्यात्मवादी और भौतिकवादी जीवन दृष्टियों भोगलिप्सा, भय, क्रोध, स्वार्थ और कपट की दमित
में से कौन उसे वर्तमान संकट से उबार सकता है ? मूल प्रवृत्तियां और उनसे जन्य दोषों के कारण
भौतिकवादी दृष्टि मनुष्य की उस भोग-लिप्सा तथा मानवता आज भी अभिशप्त है; ग्राज वह दोहरे तद्जनित स्वार्थ एवं शोषण की पाशविक संघर्षों से गुजर रही है, एक अान्तरिक और दूसरे प्रवृत्तियों का निरसन करने में सर्वथा असमर्थ है, बाह्य । आन्तरिक संघर्षों के कारण आज
जोकि आज सम्पूर्ण मानव जाति की त्रासदी है। उसका मानस तनाव-युक्त है, विक्षुब्ध है, तो
क्योंकि भौतिकवादी दृष्टि में मनुष्य मूलतः पशु ही बाह्य संघर्षों के कारण समाज-जीवन अशान्त
को एक आध्यात्मिक सत्ता (Spiriऔर अस्तव्यस्त । आज मनुष्य का जीवन tual Being) न मानकर एक विकसित सामाजिक मानसिक तनावों, सांवेगिक असन्तुलनों और मूल्य- पशु (Social animal) ही मानती है । जबकि संघर्षों से युक्त है। आज का मनुष्य परमाणु जैन धर्म मानव को विवेक और संयम की शक्तियुक्त तकनीक की बारीकियों को अधिक जानता है किन्तु मानता है। भौतिकवाद के अनुसार मनुष्य का एक सार्थक सामञ्जस्यपूर्ण जीवन के आवश्यक मूल्यों निःश्रेयस उसकी शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक मांगों 1-50
महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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