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जीवन का स्वभाव मिट होता है। जैन दर्शन में।
आन्तरिक उत्तेजनामों से चेतना में उत्पन्न विक्षोभ के चार आधार स्तम्भ हैं। वृत्ति में अनासक्ति, को समाप्त कर साम्यावस्था को बनाए रखना है। विचार में अनेकान्त, वैयक्तिक जीवन में असंग्रह समत्व केन्द्र की ओर उन्मुख रहना, यह चेतना की और सामाजिक जीवन में अहिंसा यही समत्व योग स्वाभाविक प्रवृत्ति है। स्वभाव वह है जिसका की साधना है। यही वीतराग जीवन दृष्टि है। निराकरण नहीं किया जाता है, विक्षोभों का जिसके निष्ठा सूत्र हैं १----सभी आत्माएं समान हैं निराकरण किया जाता है अतः वे आत्मा के (व्याख्या प्रज्ञप्ति ७:८) और जीवन का नियम स्वभाव नहीं होकर विभाव या विकार ही हैं। संघर्ष नहीं, वरन् परस्पर सहकार है (परस्परोपग्रहो समत्व लाया नहीं जाता वरन् विक्षोभों के समाप्त जीवानाम्-तत्वार्थ) । होते स्वतः प्रकट हो जाता है। पुनः स्वभाव स्वत: वस्तुतः समत्व योग जीवन के विभिन्न पक्षों में और विभाव परतः होता है, 'समत्व' का कोई एक ऐसा सांग संतुलन है जिसमें न केवल वैयक्तिक कारण नहीं बताया जा सकता लेकिन विक्षोभ जीवन के संघर्ष समाप्त होते हैं वरन् सामाजिक सदैव ही सकारण होते हैं अतः 'समत्व' ही चैत्त जीवन-संघर्ष भी समाप्त हो जाते हैं। मनुष्य का
अपने परिवेश के साथ जो संघर्ष है उसके कारण इसी स्वस्वभाव समत्व को हमारी प्राध्यात्मिक रूप म जावक अावश्यकताप्रा का पूति इतना प्रमुख सत्ता का सार और जीवन का परमश्रेय माना नहीं है जितनी कि व्यक्ति की भोगासक्ति । संघर्ष गया है । जैनागम-व्याख्या प्रज्ञप्ति सूत्र में कहा की तीव्रता, आसक्ति की तीव्रता के साथ बढ़ती गया है। "आत्मा समत्व रूप है और समत्व ही जाती है। प्राकृतिक जीवन जीना न तो इतना प्रात्मा का साध्य है" । जैनाचार्य कुन्दकुन्द ने तो
जटिल है और न इतना संघर्षपूर्ण ही। व्यक्ति आत्मा को 'समयसार' कहा है (समत्वं यस्य सारं का अान्तरिक संघर्ष जो उसकी विविध आकातत्समयसारं)। यह 'समत्व' क्या है ? यह स्पष्ट क्षाओं और वासनाओं के कारण होता है उसके करते हुए प्रवचनसार में वे कहते हैं-आत्मा की पीछे भी व्यक्ति की तृष्णा या प्रासक्ति ही प्रमुख मोह और क्षोभ से रहित अवस्था ही 'समत्व' तथ्य है। इसी प्रकार वैचारिक जगत् का सारा
संघर्ष आग्रह, पक्ष या दृष्टि के कारण है। वाद,
पक्ष या 'दृष्टि' एक अोर सत्य को सीमित करती है - जैन दर्शन की समग्र साधना का मूल सामा- दूसरी ओर 'प्राग्रह' सत्य के अनन्त पहलुओं को यिक या समत्व योग है। इसमें समभाव की प्राप्ति प्रावृत करता है। भोगासक्ति स्वार्थ की संकीर्णता रूप सम्यक्दर्शन तथा सम्यज्ञान एवं सम्यक्-. को जन्म देती है और आग्रहवृत्ति वैचारिक संकीचारित्र तीनों का समावेश है। जिन्हें हम चित्तवृत्ति गणता को प्रसूत करती है। संकीर्णता चाहे वह का समत्व, बुद्धि का समत्व और आचरण का हितों की हो या विचारों की, संघर्ष को जन्म देती समत्व कह सकते हैं। व्यावहारिक दृष्टि से चित्त- है। समग्र सामाजिक संघर्ष के मूल में यही हितों वृत्ति का समत्व अनासक्ति या वीतरागता में, बुद्धि की या विचारों की संकीर्णता काम कर रही है। का समत्व अनाग्रह या अनेकांत में और आचरण समत्वयोग की साधना इन वैयक्तिक एवं सामाजिक का समत्व अहिंसा एवं अपरिग्रह में निहित है। संघर्षों के निवारण के लिए आवश्यक है। वह अनासक्ति, अनेकान्त, अहिंसा और अपरिग्रह के व्यक्ति के जीवन के विविध पक्षों में तथा सामाजिक सिद्धान्त ही जैन दर्शन में समत्व योग की साधना जीवन में एक सांग सन्तुलन स्थापित करती है । 1-54
महावीर जयन्ती स्मारिका. 76
है (१:१७)।
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