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महावीर को तो अब न किसी से राग था और न विचार या कार्य की जड़ में संकल्प मा. ही यदि किसी से द्वेष । उन्हें अपनी आत्मा में सब की अनिष्टकर है तो वह भी हिंसा है । “अज्झवसिएण
आत्माओं के दर्शन होने लगे थे । उनकी सूक्ष्म दिव्य बंधो।" उन्होंने यज्ञवादियों को सचेत किया कि दृष्टि किसी के भी ऊपरी भेद को पार कर उसके तुम यज्ञ करो परन्तु उसमें पशु या नर बलि न भीतर दबे सत्य को खोज निकाल लेने में पूर्ण देकर अपने विषय-विकारों की आहुति दो । क्योंकि समर्थ, सक्षम हो गई थी। ऐसा ही हुआ जबकि “जीव वहो, अप्प वहो, जीव दया, अप्पणो दया अपने ज्ञान के अहंकारी इन्द्रभूति गौतम उनके सामने होई" । देवता को अर्पित किये जीव को तो उसका आये । महावीर ने उन्हें उनके भीतर दबे सत्य का संरक्षण मिलना चाहिए न कि मौत । उसको मार बोध कराया और वे उनके हो गये । इसे लोग डालना तो देवता का तिरस्कार करना है। चमत्कार कहेंगे परन्तु चमत्कार तो यह उनके लिये हो सकता है जो प्रात्मशक्ति से अनभिज्ञ हैं ।
इस प्रकार जीने को, जैसे हमारी सत्ता के
अलावा किसी अन्य की सत्ता है ही नहीं महावीर महावीर का दिव्य उपदेश-शुरू हुआ जो ने अतिक्रमण बताया । पैसा, ताकत अथवा प्रभाव तीस वर्ष तक होता रहा । उनका उपदेश प्रात्मा के के बल पर यदि कोई लाइन तोड़कर पहले टिकिट शुद्ध स्वरूप का दर्शन कराने वाला तो था ही, वह लेता है या कहीं भीतर घुसने की चेष्टा करता है, मानव जीवन को व्यवहार मार्ग से उस ओर मोड़ राशन की दुकान पर राशन लेता है तो वह भी देने वाला भी था । उनकी मान्यता थी कि अन्तरङ्ग महावीर की वाणी में अतिक्रमण है । अकाल, शुद्धि हेतु साधना पथ पर अग्रसर होने से पहले महामारी, सूखे या बाढ़ में, अधिक पैसा कमाने की मानव को जीवन का रहस्य जानना भी परम खातिर, मानव पीड़ा को देखकर भी अनाज तथा आवश्यक है ताकि उसमें मलिन संस्कारों का जीवन के अन्य आवश्यक साधनों की जमाखोरी अाना रुके और जो पाचुके हैं उनका क्षय अथवा कालाबाजारी एवं तस्करी आदि करने वाला होना प्रारम्भ हो । उन्होंने मानव को समत्व का भी, अतिक्रामक है । भ्रष्टाचार, कम नाप-तोल, ज्ञान कराते हुए बताया कि प्रात्मा सब की समान गलत हिसाब-किताब, संग्रह और शोषण यह सब है । उसमें ऊंच-नीच का कोई भेद नहीं । यह सारा हिंसा है। भेद तो ऊपरी है, कर्मगत है । किसी कवि ने ठीक ही कहा है :
तृष्णा पर अंकुश-मानव को जीवन पोषण के
लिए उत्पादन और उपार्जन की शिक्षा तो प्रथम तीर्थदुःख तेरा हो या. मेरा हो, कर भगवान् ऋषभदेव ही दे गये थे। महावीर दुःख की परिभाषा एक है ।
ने मानव में बढ़ रही तृष्णा पर अंकुश लगाने हेतु आंसू तेरे हों या मेरे हों,
ममत्व परिणाम का निषेध करते हुए प्रतिपादित आंसू की भाषा एक है ॥
किया कि उत्पादन और उपार्जन तो खूब करो
परन्तु अपने पास संग्रह कर उसका ढेर मत अहिंसा की महिमा-बताते हए महावीर ने लगायो । एक निश्चित सीमा बांध कर ही उसका बोध कराया कि यज्ञ में पशु बलि अथवा शिकार उपयोग करो और जो बचे उसके संरक्षक (ट्रस्टी) में या अपने स्वार्थ साधन में किसी प्राणी की की बन कर रहो तथा उसे अन्यों के काम प्राने दो। गई हत्या ही हिंसा नहीं है। प्रत्युत किसी भी वस्तु अपने आप में दुःख की स्रष्टा नहीं है; दुःख
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नमन्ती स्मारिका 76
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