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सुप्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् स्व० धर्मानन्द कौसाम्बी मानव मानव में भेद निर्माण करनेवाली तीन . कहते हैं कि, “पार्श्वनाथ के चातुर्याम धर्म को पांच बातें हैं । प्रथम है ममता, आसक्ति, तृष्णा या कामना। यमों के रूप में ब्राह्मण संस्कृति ने स्वीकार किया। किसी भी चीज की आसक्ति या मूर्छा मनुष्य को महावीर ने उसका पंच महाव्रतों के रूप में विस्तार दुःख के गर्त में, अशांति की अग्नि में ढकेलती है । किया, बुद्ध ने आष्टांगिक मार्ग के रूप में और ईसा और दूसरों के दुःख में भी वृद्धि करती है क्योंकि ने टेन कमांड मेंट्स के रूप में चातुर्यामों का विस्तार कामनाएं अनन्त हैं। उनकी कभी तृप्ति नहीं होती। किया। इस तरह श्रमण-संस्कृति केवल जैन और उसके लिये संयम को अपनाना चाहिये। उपलब्ध बौद्धों तक ही सीमित नहीं रही, वरन् उसका प्रभाव साधनों में सन्तोष मानने का प्रयत्न करना चाहिये सार्वभौमिक पड़ा।"
यही अपने और दूसरों के सुख का मार्ग है ।
श्रमण संस्कृति का मुख्य सिद्धान्त अहिंसा है। ऐसी ऐतिहासिक पार्श्वभूमि या परम्परा की इसमें सभी प्राणियों को आत्मवत् मानकर समता विरासत भगवान् महावीर को प्राप्त हुई। उस जैन और आत्मीयता का व्यवहार करने को कहा है। धर्म के न वे संस्थापक प्रथम तीर्थङ्कर थे और न गहराई से विचार करने पर ज्ञात होगा कि संसार अंतिम ही । उनके पहले अनेक तीर्थकर हुये और की सभी समस्याओं के मूल में असमता ही प्रमुख भविष्य में भी होंगे। इसीलिये महावीर का धर्म रूप से रहती है। यदि सभी एक दूसरे के साथ किसी व्यक्ति या वर्ग विशेष का उपदिष्ट धर्म नहीं आत्मवत् व्यवहार करें तो, सारा संसार सुखपूर्वक है, व्यापक धर्म है । इसीलिये वह जनधर्म कहा जा रह सकता है।
सकता है उसमें विश्व कल्याण की क्षमता है। वह
सार्वजनीन है। 'समता' सार्वभौमिक तत्व है। संसार के प्रायः सभी विचारक मानते हैं कि विषमता मानवजाति के चूकि जैनधर्म की पार्श्वभूमि समन्वय की लिये श्राप है। सारे दुःखों का मूल है। इसलिये होने से भारतीय विचारधारा के अनुकूल थी और समता में बाधक सभी बातों को दूर करने में ही शायद यही कारण हो कि भगवान् महावीर के व्यक्ति और समाज का हित है। समता श्रमण प्रमुख शिष्य 11 ब्राह्मण हुये जिन्होंने जैन धर्म संस्कृति का हृदय है। जिस बात को गीता ने समता के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया। को प्रात्म विकास में प्रधानता दी है। यही कारण है कि विनोबाजी गीता को साम्प्रयोग कहते हैं ।
__महावीर ने विरोध की अपेक्षा नये मूल्यों की चाहे ज्ञानी हो या कर्मयोगी, संन्यासी हो योगी, गुरणा
स्थापना की । यज्ञ की जैसे उन्होंने नई और प्राध्यातीत या भक्त सबके लक्षणों में समता ही प्रधान
त्मिक व्याख्या की वैसे ही ब्राह्मणत्व को नया रूप रूप से दिखाई देती है। राग द्वेष, अहंता, ममता
प्रदान किया। शाश्वत समस्याओं का समाधान को जीतने पर ही बल दिया है। वीतरागत्व को पुकार
न सुझाया । इसलिये वे भारतीय ही नहीं मानव जाति ही प्राधान्य है।
के महान् सेवक थे, उद्धारक थे।
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महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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