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चली ग्रा रही हीनता और तिरस्कार की कलुषित भावना को दूर कर उसका उद्धार किया । उसी पतित अपमानित नारी को नारायण की माता के रूप में सम्मानित किया । उसे भी पुरुष के समान उत्थान व आत्मोद्धार की अधिकारिणी घोषित कर उसके लिए भी साधना का पथ सुलभ किया। जहां तथागत बुद्ध ने अपने पट्ट शिष्य प्रानन्द के आग्रह पर केवल एक महिला को साध्वी बनाने में भी खतरा माना था वहां महावीर ने हजारों प्रायिकाएं बनाई । क्रीत दासी चन्दना इसका एक ज्वलन्त उदाहरण है जिसे उन्होंने अपने साध्वी संघ के सर्वोच्च पद पर प्रतिष्ठित कर गौरवान्वित किया । तब समाज का यह आधा अंग बोझा न रह कर वरदान सिद्ध हुआ। आज आप देख भी रहे हैं कि जहां-जहां यह शक्ति जागृत हुई है वहां-वहां इसका लाभ मिला भी है । परिवार सुखी हुए हैं समाज विकसित हुए हैं और देश समृद्ध हुए हैं। कई देशों का तो वे आज प्रति दक्षता से शासन तक सम्हाले हुए हैं ।
ऊंच-नीच का भेद - महावीर ने अमान्य किया । समाज व्यवस्था में सेवा हेतु गठित की गई शूद्र कहाने वाली जाति के प्रति किया जा रहा अमानुषिक व्यवहार देखकर उन्होंने जगत् के जीवों को अपने गुणों का विकास करने की पद्धति बताते हुए परम्परागत एवं कुलगत वरीयता का खण्डन किया और जन्म से जानी जाने वाली ऊंच-नीचता को उन्होंने गलत और भ्रामक बताया । "जाति भेदकल्पनं । ” उन्होंने स्पष्ट घोषित किया कि सब को अपनी अपनी ग्रात्मा के उद्धार करने का अधिकार है चाहे वह सवर्ण हो अथवा शुद्र । " चाण्डालोऽपि व्रतोपेतः पूजितो देवादिभिः " प्राचार्य अमितगति ने महावीर के इस दर्शन को निम्न शब्दों में गुन्थित किया है :
शीलवन्तो गताः स्वर्गे नीच जाति भवाऽपि । कुलीना नरकं प्राप्ता शीलसंयसनाशिनः ॥ आज के मानव समाज ने महावीर के इस
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उपदेश को पूरी तरह मान्य कर लिया है। शासन तक उनके प्रति किये जाने वाले दुर्व्यवहार को, अस्पृश्यता को कानूनन अपराध मानने लगा है । यदि कोई सदाचारी है और मद्य-मांस का त्यागी है तो केवल शुद्र जाति का कहलाने के कारण ही उसके साथ भेद-भाव क्यों ? रही बात उसके द्वारा किये जाने वाले कर्म की तो याद रखिये स्व. मुख्तार साहब की निम्न पंक्तियों को :
गर्भवास प्रो जन्म समय में, कौन नहीं अस्पृश्य हुआ ।
कौन मलों से भरा नहीं ? किसने मल-मूत्र न साफ किया ?
किसी के साथ बैठकर खाना-पीना या नहीं अथवा उससे सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करना हर व्यक्ति की रुचि पर निर्भर करता है । किसी धर्म में उसका मानवीय अधिकार होने पर भी वह तदनुकूल आचरण एवं मर्यादाएं पालने पर ही प्रवेश करेगा परन्तु केवल शूद्र (सेवक ) जाति का होने मात्र से उसके प्रति घृणा करना अनुचित है। महावीर के उपदेश के प्रतिकूल । उपाध्याय श्री विद्यानन्द जी का कहना है कि यदि " हरिजन का पानी पीकर जैनी हरिजन हो जाता है तो जैनी का पानी पीकर हरिजन जैनी क्यों नहीं हो सकता ।"
सत्ता के पीछे भागो मत - महावीर का उपदेश था कि सत्ता के पीछे भागो मत चाहे वह राजनैतिक हो, सामाजिक हो अथवा धार्मिक हो । वे स्वयं राजपाट का मोह त्याग सत्ता की आपाधापी से दूर रहे | उनका मत था कि पैसा और सत्ता दोनों ही भ्रष्ट और पतित बनाने वाले हैं । सत्ता जब पैसा या छलबल से प्राप्त की जाती है तो वह मानव को दानव बना देती है । तभी तो बाबा भागीरथ जी कहा करते थे "परोपकार करना हो तो अध्यक्ष मत बनना ।" सत्ता यदि लोक
महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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