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पर समृद्धि के साथ संयम नहीं हो तो ईर्ष्या, द्वेष, मत्सर बढ़कर विनाश सरजा जा सकता है । भौतिक शक्तियां या समृद्धि के साथ प्राध्यात्मिकता न बढे तो दुर्गुणों के आगे सद्गुण पराजित हो जाते हैं । जिस धर्म और न्याय के लिये युद्ध हुआ उसमें अन्यायी और अधर्म का पक्ष तो पराजित हुआ ही लेकिन विजयी पक्ष भी इतना गया कि उसकी जीत भी हार बनकर रह गई ।
दुर्बल हो
युगद्रष्टा महापुरुष श्रीकृष्ण युद्ध के दुष्परिगामों को जानते थे । उन्होंने लड़ाई टालने के लिये प्रबल प्रयत्न किये पर वे विफल हुये, युद्ध हुआ । विजयी पक्ष भी इतना जर्जर हो गया कि अर्जुन जैसे वीर योद्धा भी यादव कुल की स्त्रियों को दस्युनों के हाथों से बचा नहीं पाये । सारा भारतवर्ष इस दुष्परिणाम से प्रभावित हुआ ।
इस दारुरण स्थिति ने चिन्तन को नया मोड़ दिया । भौतिक सुखों की निस्सारता देख निवृत्ति मार्ग की ओर भारतीय झुक गये। हिंसा के दुष्परिरणामों से अहिंसा की ओर जाने के लिये चिन्तकों को विवश होना पड़ा ।
भारतीय ऐसे मत्त बन गये कि स्वयं भगवान् कृष्ण भी यादवों को विनाश से बचा नहीं पाये । समृद्धि, शक्ति व सत्ता के मद में भारतीय इतने मत्त बन गये कि उन्होंने विनाश को बुला लिया । उस समय के चिन्तकों को अहिंसा और निवृत्ति की ओर जाना पड़ा । यह भौतिक सुखों की निस्सारता और हिंसा के दुष्परिणामों की प्रतिक्रिया थी । अहिंसा श्रेष्ठ धर्म माना जाने लगा ।
उस समय के साहित्य से यह बात स्पष्ट दिखाई देती है । केवल अपने स्वार्थ साधन के लिये जीना हीम समझा जाने लगा। भौतिक सुखों से प्राध्यात्मिक सुख श्रेष्ठ माना जाने लगा । प्रवृत्ति
महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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से निवृत्ति श्रयस्कर लगने लगी। हिंसा से श्रहिंसा श्रेष्ठ धर्म माना जाने लगा । केवल श्रमण या श्रात् धर्म ही अहिंसा को श्रेष्ठ मानता था ऐसी बात नहीं पर महाभारत में जो अहिंसा की महिमा गाई गई है वह निम्नलिखित श्लोकों से स्पष्ट होती है।
प्रभयं सर्वभूतेभ्यो दत्वा यश्चरते पुनः । न तस्य सर्वभूतेभ्यो भयमुत्पद्यते क्वचित् ॥
- जो मुनि सर्वभूतों को अभय देकर विचरता है, उसे किसी प्राणी से कहीं भी भय नहीं उत्पन्न होता ।
यथा नागपदे श्रन्यानि पदानि पदगामिनाम् । सर्वाण्येवापि धीयन्ते पदजातानि कौंजरे ॥
महा० अनु० पर्व 114-6 -
एवं सर्वमहिंसायां धर्मार्थमपिधीयते । सोऽमृतो नित्यं वसति यो न हिंसा प्रपद्यते ॥
- जैसे महानाग - हाथी के पदचिह्न में पैरों से चलनेवाले अन्य सर्व प्राणियों के पदचिह्न समा जाते हैं, उसी प्रकार सर्व धर्म और अर्थ एक में ( हिंसा में ) सन्निविष्ट हैं । जो पुरुष प्राणीहिंसा नहीं करता, वह नित्य अमृत होकर निवास करता है, जन्म-मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो जाता
है ।
सर्वाणि भूतानि सुखे रमन्ते सर्वारिण दुःखैश्च भृशं त्रसन्ते । तेषां भयोत्पादनजातखेद:
कुर्यान्न कर्मारिग ही श्रद्दधानः ॥
- सर्व प्राणी सुख में प्रानन्दित होते हैं । सर्व प्राणी दुःख से प्रति त्रस्त होते हैं। श्रतः प्राणियों को भय उत्पन्न करने में खेद का अनुभव करता हुमा श्रद्धालु पुरुष भयोत्पादक कर्म न करे ।
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