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भूमि में सुसंस्कारों के बीज वपन कर लिये थे। द्वारा लोक कल्याण करने आया था, त्रिभुवनी मां भावों के संक्लेष-गह्वरों और सरल शृंगों से होता त्रिशला का तो मातृत्व ही कृतार्थ हो गया था। महावीर का जीव कभी जटिल पर्याय में पतनोन्मुख प्रज्ञान, अधर्म, अन्याय और अत्याचार का गरल हुआ तो विश्वनन्दी पर्याय में प्रारोहण के नये मोड़ पचाने वाला वह त्रिभुवनी शंकर अवधि-ज्ञान के पर पाया । कभी त्रिपृष्ट पर्याय में अर्द्धचक्रवर्तीपद आलोक में गर्भ में ही प्रात्म दर्शन कर रहा था। को पाकर भव भोगों के चक्रव्यूह में फंसा तो कभी नरकादि की अनन्त पीड़ायें भोगीं । समय के अनन्त
एक अपराजेय व्यक्तित्व प्रवाह में खोता-उभरता यह जीव 'सिंह' की पर्याय भ० महावीर क्षत्रिय व्यक्तित्व लेकर जन्मे थे। में अहिंसा और करुणा के प्रायाम में पुनः अपनी जाति से ही क्षत्रिय नहीं अपितु व्यक्तित्व से-जहां शक्ति का बोध प्राप्त करता है और फिर उसकी पशु
विजय की भाषा होती है संसार को जीतना आसान पर्याय भी यह नया बोध पाने में बाधा नहीं बनती। है परन्तु मन को जीतना मुश्किल है जिसमें संसार मृगराज के भीतर का सोया बुद्धत्व जागता है और बसता है । उन्होंने मन की गहरी कामना और वासना अनूभूति की एक और किरण जगती है। आगे की को जीता जिनके व्यक्तित्व में कहीं बूढ़ापापन नहीं पर्यायों (कनकोज्ज्वल, हरिषेण और प्रियमित्र था क्योंकि उन्होंने जो पाया था वह इतना सदा चक्रवर्ती) में साधना का क्रमिक विकास होता है और यौवन था कि बुढ़ापा टिक नहीं सकता था । जिनका नन्दभव में साधना के उस शिखर पर आरूढ होता रुधिर दूध के समान श्वेत वर्ण था । दूध मातृत्व है. जहाँ उनको 'तीर्थकरत्व' का श्रेष्ठ शिवत्व शक्ति का और मातृत्व प्रेम और वात्सल्य का प्रतीक रूप में मिल जाता है।
होता है। जहाँ प्राणिमात्र के दुःख दूर करने की
भावना हो उस उत्कृष्ट कारुणिक वृत्ति का परिआत्मानुभूति के इस आरोहण में प्रत्येक पर्याय चायक था उनका श्वेत वर्णी रुधिर । लोकोत्तर महावीर बनने की पूर्व तैयारी में संकल्पकृत रहा। त्याग और पवित्र मनोवृत्ति के अभिलेखन जिनके महावीर के जीवन को पढ़ने के लिये इन पर्यायों को शरीर में एक हजार आठ शुभ लक्षणों के चिह्नों के अलग 2 करके नहीं देख सकते । इन समस्त जन्मों रूप में अंकित थे। एक विशिष्ट सुगंधमय शरीर, की तपश्चर्या और साधना का जोड़ महावीर जैसा वजवृभष नाराच संहनन, समचतुरस्र संस्थान प्रादि व्यक्ति खड़ा कर सका।
लोकोत्तर विकास थे परन्तु थे वे स्वाभाविक । त्रिभुवनी मां का मातृत्व कृतार्थ
जिनके ज्ञान के आलोक में सारी बाह्य संज्ञायें __ जीवन के लोकोत्तर गुणों को लेकर अच्युत स्वतः टूटने लगीं थीं और जिनकी पूरी चेतना ही स्वर्ग का वह क्षायिक सम्यक्ती जीव, लोक का विस्फोटित होकर ज्ञानालोक बन गयी थी फिर वहाँ सर्वोदय करने माँ त्रिशला के गर्म में आया । वह क्या घर क्या बाहर ? ज्ञान की विराटता में सारे अंतिम पर्याय रह गयी थी जिसमें सभी शक्यताओं भेद विलीन हो जाते हैं और खड़े होने का दायरा का प्रकटीकरण करना शेष भर रह गया था। भी अनन्त हो जाता है। प्रकृति और समष्टि के त्रिशला के स्वप्न में जो तीर्थनायक (गज), सत्य- तादात्म्य में जिन्हें वस्त्र भी बाधा बनने लगे, फिर प्रवर्तक (श्वेत वृषभ), अनन्त ऊर्जा का सम्वाहक भला वह उन्हें कैसे प्रोढे रह सकता है ? ज्ञान का (सिंह), दिव्यज्ञानधारक (सूर्य), सम्वेदना, करुणा, अंग बन गयी थी जिनकी नग्नता क्योंकि छिपाने को कीर्ति की विरासत लिये अपने वर्चस्व एवं प्रभुत्व कोई कुरूपता रह ही नहीं गयी थी।
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महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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