________________
का स्वामी बन जाता है। उसको किसी वस्तु की है। केवल वस्त्र त्याग कर नग्न होना अपरिग्रह कमी नहीं रहती। भगवान् महावीर ने अपने घर नहीं है । जब योगी अविद्या, राग आदि क्लेश तथा का ही समस्त धन-वैभव ठुकरा दिया था, अतः देहाहंकार को त्यागता है तो उसका चित्त निर्मल उनमें ऐश्वर्य के प्रति किसी प्रकार का राग नहीं होकर यथार्थज्ञान को प्राप्त करने में समर्थ बन था । यहाँ तक कि उन्होंने अपने वस्त्रों का भी जाता है । इसमे वह भूत तथा भविष्य के जन्मों का त्याग कर दिया था। ऐसा महान् योगी संसार के ज्ञाता हो जाता है। वह यह जान लेता है ऐश्वर्य का स्वामी न होगा तो कौन होगा ? ऐश्वर्य कि उसका पूर्वजन्म क्या था ? कैसा था ? के पीछे भागने वाले लोग तो कभी ऐश्वर्य का और कहां था ? यह जन्म किस प्रकार स्वामित्व प्राप्त ही नहीं कर सकते । अस्तेय हुआ? तथा आगे कैसा जन्म होगा ? होगा या भगवान् के योग का तीसरा माध्यम था । ब्रह्मचर्य नहीं होगां । निष्कर्ष यह है कि अपरिग्रही योगी भगवान् महावीर के योग का चौथा माध्यम था। तीनों कालों में अपने आत्म स्वरूप का ज्ञाता रहता उन्होंने गृहत्याग के पश्चात् यावज्जीवन ब्रह्मसेवन है। वह आत्मप्रतिष्ठ बन जाता है, यह स्थिति किया । इस ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में पातञ्जल योग सर्वज्ञता जैसी ही है जिसे महावीर स्वामी ने प्राप्त दर्शन लिखता है
किया था। ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः (योग. २/३८) वास्तव में आत्म-तत्व अत्यन्त गूढ है । उसका जब योगी में ब्रह्मचर्य की प्रतिष्ठा हो जाती है तो रहस्य समझना सामान्य जन की तो बात ही क्या, उसे अपरिमित वीर्यलाभ होता है । वीर्यवान् व्यक्ति ज्ञानी व्यक्ति के लिए भी कठिन होता है । इसी ही शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक शक्तियों का कारण आत्मज्ञान को रहस्य विद्या या उपनिषद् स्वामी बन जाता है। वह अनन्त पराक्रमशाली विद्या कहा गया है। कठोपनिषद् में इस सम्बन्ध बन जाता है। इसीलिए वह महावीर पदवी को में कहा गया हैधारण कर लेता है । भगवान् का असली नाम तो पराञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयंभूः वर्धमान था, उन्होंने ब्रह्मचर्य की प्रतिष्ठा करके तस्मात् पराङ् पश्यति नान्तारात्मन् । अनन्तवीर्यलाभ प्राप्त किया, फलस्वरूप वे कश्चिद् धीरः प्रत्यगात्मानमैक्षत् महावीर कहलाये।
आवृत्तचक्षुः अमृतत्वमिच्छन् ।। (कठो ४ । १) भगवान महावीर के योग का पांचवां माध्यम स्वयम्भू ने इन्द्रियों के छिद्रों को बाहर की ओर अपरिग्रह था। इस सम्बन्ध में योग दर्शन कहता है- बनाया है अर्थात् समस्त इन्द्रियों की प्रवृत्ति बहिअपरिग्रहस्थैर्येजन्मकथन्ता संबोधः । योग.
. मुंखी है। इसी कारण मनुष्य बाहर की ओर
देखता है। कोई ही धीर व्यक्ति अमृत को चाहता २/३६) : यहां स्थूल सांसारिक परिग्रह की बात नहीं है। यहां तो योगी के सूक्ष्म परिग्रहों को.
हुना अपनी अांखों-इन्द्रियों को बन्द करके त्यागने की चर्चा है। स्थूल सांसारिक परिग्रहों का ।
अन्तर्मुख होकर अन्दर विराजमान प्रात्म-तत्व त्याग तो योगी अपने अभ्यास के प्रथम चरण में का दख सकता है। ही कर देता है। यहां जिस परिग्रह की चर्चा है भगवान महावीर ऐसे ही अन्तर्मुखी व्यक्ति थे। वह है अविद्या, राग आदि क्लेश तथा अपने देह में उन्होंने अपनी इन्द्रियों की बाह्य वृत्ति को अन्दर अहन्ता अर्थात् ममत्व का होना । इन परिग्रहों के मोड़ लिया था इसी कारण वे औपनिषदिक त्यागने से ही योगी को अपरिग्रह की सिद्धि होती योगी थे।.
महावीर जयन्ती स्मारिका 76
1-23
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org