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भगवान महावीर स्वामी को अहिंसा का साक्षात् भगवान महावीर स्वामी ऐसे ही महान आत्मा अवतार ही कहना चाहिये। उपनिषदों में इस थे जिनसे प्रतिक्षण अहिंसा का प्रवाह बहता रहता अहिंसा की अन्तिम परिणति इस प्रकार है
था, अतः उनके पास-पास के समस्त अन्तःकरण
अपनी तामसी अहिंसा वृत्ति को त्याग देते थे । यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति ।
उनके योग का दूसरा माध्यम सत्य था। इस सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते ॥
सम्बन्ध में पातञ्जल योग दर्शन कहता हैयस्मिन् सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद् विजानतः । तत्र को मोहः कः शोकः एकत्वमनुपश्यतः ।। सत्य-प्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम् ( योग.
२/१३६) : जिस योगी की सत्य में सुदृढ़ स्थिति प्रर्थात् जो साधक सम्पूर्ण भूतों को अपनी आत्मा
हो जाती है उसकी वाणी से कभी असत्य नहीं में ही देखता है और समस्त भूतों में भी अपनी
निकलेगा क्योंकि वह यथार्थ ज्ञान का रखने वाला प्रात्मा को ही देखता है वह सर्वात्म दर्शन के कारण
हो जाता है । उसकी वाणी अमोध बन जाती है । किसी से भी घृणा नहीं कर सकता। जिस समय
उसकी वाणी द्वारा जो कुछ भी क्रिया की जाती है ज्ञानी पुरुष के लिए समस्त प्राणी अपनी आत्मा
वह फलवती होती है। वह अपनी वाणी के द्वारा ही हो गए उस समय सर्वत्र एकत्व का दर्शन करने
वचन मात्र से ही समस्त पुण्य फलों को प्राप्त करता वाले उस ज्ञानी को क्या शोक तथा क्या मोह हो
रहता है। सकता है। भगवान महावीर ने स्वयं को प्राणिमात्र में
___ सत्यनिष्ठ योगी निरन्तर यही भावना करता तथा प्राणिमात्र को स्वयं में देख लिया था, अतः
रहता है कि उसके मुख से न केवल भूत तथा वे शोक तथा मोह से परे थे । वे जित शोक तथा
वर्तमान के सम्बन्ध में ही, अपितु भविष्य में घटने
वाली घटनाओं के सम्बन्ध में भी कोई असत्य वचन जिल मोह थे इसी लिए वे महावीर थे। उन्होंने
न निकलने पावे। सत्य की प्रबलता से उसका शोक तथा मोह जैसे उद्दाम अन्तःशत्रुओं से
अन्तःकरण इतना निर्मल एवं पवित्र बन जाता लड़कर उन पर पूर्ण विजय प्राप्त की थी। अहिंसा
है कि उसकी वाणी से वही बात निकलती है जो उनके योग का पहला माध्यम थी।
क्रिया रूप में परिणत होने वाली होती है । .. योग दर्शनकार ने अहिंसा (यम) का फल बताते हुए लिखा है
महावीर स्वामी की वाणी भी सत्यपूत थी,
अतः उनके वचन कभी असत्य नहीं निकले । जो अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्याग : कुछ भी उन्होंने कहा सत्य ही कहा अर्थात् उनका (यो. 2135) अहिंसा निष्ठ योगी जब निरन्तर
कथन त्रिकाल सत्य रहा। यह भावना करता है कि उस के निकट किसी भांति की हिंसा न होने पावे। उस समय उसके निर्मल अस्तेय में भगवान् की सुदृढ़ मास्था थी। इस अन्तःकरण से अहिंसा की ऐसी सात्विक धारा विषय में पातञ्जल दर्शन कहता है-- अत्यन्त तीव्र वेग से प्रवाहित होने लगती है जिससे अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम् ( योग. उसके समीपवर्ती हिंसक तामसी अन्तःकरण भी २/३७) : जब कोई व्यक्ति अस्तेय में प्रतिष्ठित प्रभावित होकर अपनी हिंसामयी वृत्ति का हो जाता है तो वह राग को पूर्णतया त्याग देता परित्याग कर देते हैं।
है। ऐसी स्थिति में वह संसार की समस्त सम्पत्तियों
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महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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