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के पथ पर दीक्षित होकर प्राप एकाकी ही चल पड़े मूर्ति विष के स्थान पर अमृत की वर्षा कर रही थे। उनकी साधना सजीव थी। अपनी निरन्तर थी। न कोई बैर तथा न कोई प्रतिशोध की कठोर साधना के द्वारा वे अपने जीवन को निर्मल भावना किन्तु पूर्णरूपेण अभयमुद्रा। विशुद्ध मैत्री एवं निष्कलंक बनाते रहे । उनका हृदय सत्य की और करुणायुक्त होते हुए महावीर ने सर्प को खोज के लिए आतुर हो रहा था। परिणामस्वरूप आत्मबोध दिया अपनी मृदु भाषा में । हे सर्पराज! मार्ग में आने वाली विभिन्न विघ्न-बाधाओं से भी वे समझिये, अपने स्व को समझिये ! आप क्या कर पश्चात्पद कभी नहीं हुए अपितु बड़े जोश एवं रहे हैं ? क्या कभी विष से विष और बैर से र होश के साथ निरन्तर अग्रसर होते ही रहे। भी समाप्त हुया है ? नहीं, कदापि नहीं । विष
अमृत से तथा बैर प्रेम से शान्त हुआ करता है । एक समय की चर्चा है कि साधना के पथ पर
इस उपदेशामृत का प्रभाव ऐसा जादू की भांति वे निर्भीक होकर बढ़ते जा रहे थे एक ऐसे वन की
घर कर गया कि उस स्नेहिल अमृतोपदेश के पान ओर जिस वन में कोई भी मनुष्य दिखलाई नहीं
करते ही तन और मन से, उसका व्याप्त विष न पड़ रहा था तथा जो अतीव भयावह था। लोगों ने उनकी मन्थरगति को देखकर कहा कि इस ओर
मालूम कहां चला गया। इस भांति महावीर की
अहिंसा ने विष को भी अमृत बता दिया। यह था किसलिए और कहां जा रहे हैं ? क्या इस मार्ग से
साधना का विलक्षण चमत्कार । आप सुपरिचित हैं ? इस मार्ग में एक भयंकर विषधर सर्पराज रहता है। जो कोई भी व्यक्ति
महावीर ने अपनी जीवन साधना में आने कभी भूल या असावधानी से इस ओर जाता है तो
वाली विविध बाधाओं के लिए अन्य की सहायता उस व्यक्ति के वापिस जीवितावस्था में लौटकर आने
एक सच्चे मुनि होने के नाते कदापि स्वीकार की आशा ही नहीं रहती है क्योंकि वह विषधर
नहीं की। वे आत्मनिर्भर ही रहे। इसके फलसर्प अपनी फुकार मात्र से क्षण भर में ही परलोक
स्वरूप जीवन का समस्त भार वे स्वयं ही वहन धाम का अतिथि बना देता है। इस प्रकार की
करते थे। चर्चाओं के श्रवण मात्र से श्रोता का हृदय कांप उठता है, किन्तु महावीर किञ्चित्मात्र भी एक समय की चर्चा आती है कि महावीर व्याकुल नहीं हुए। वे तो असीम करुणासागर थे। किसी ग्राम के सन्निकट ध्यानास्थ, तन और मन अपनी गति से चलते ही रहे और वहां जा पहुंचे से मौन समता धारा में तल्लीन होते हुए खड़े थे जहां पर चण्डकौशिक सर्पराज की बाँबी थी। वे कि इसी मध्य ग्रामवासी एक ग्वाल, “महावीर वहां वहां पर खड़े रहे। किसी दुराग्रह अथवा अहं की पर हैं' इस विश्वास पर पशुओं को चरते हुए छोड़ भावना को लेकर उन्होंने ऐसा नहीं किया किन्तु कर कार्यवशात् कहीं पर चला गया, यह कहते हुए अपनी अपूर्व मैत्री एवं करुणा की अजस्र प्रवाहित कि मेरे इन पशुओं की तुम निगरानी करते रहना। होने वाली धारा की परीक्षा हेतु ही ऐसा किया। यह न हो कि ये पशु इधर-उधर कहीं पर चले वे यह जानना चाहते थे कि इस धारा का वेग कैसा जाये । महावीर ध्यान में स्थित अपनी प्रात्मा की है और कितना है । सर्पराज तत्क्षरण बाँबी से बाहर ध्वनि को ही सुन रहे थे। उस ग्वाले के कहे हुए निकला और ओह ! उसकी भीषण फुकार ! चरणों शब्दों को क्या सुनते ? युगपत् दो ध्वनियां कैसे पर देश पर दंश ! तन तथा मन दोनों ही से वह सुनाई दे सकती हैं ? कार्य समाप्ति पर वह ग्वाल विष उंगल रहा था। उधर महावीर की शान्त जैसे ही आया और अपने पशुओं को वहां पर नहीं
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महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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