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इसी तरह दार्शनिक क्षेत्र के साकार - निराकार, सगुण-निर्गुण सत्-असत् नित्य-अनित्य, अनादिसादि इत्यादि विवादों में भी जो संतुलित दृष्टिकोण से उनके सत्यांशों को उद्घाटित करते हुए अधिकाधिक सत्य का दिग्दर्शन कराता है, वही ज्ञानी है । यही स्याद्वाद है ।
'दूसरों के साथ वह व्यवहार न करो जो तुम्हें अपने लिए पसन्द नहीं।' यदि तुम चाहते हो कि जो बात तुम्हें सत्य प्रतीत होती है उसके कहने पर दूसरे तुमसे झगड़ा न करें तो तुम भी दूसरों की बातों के लिए जो उन्हें सत्य लगती हैं, उनसे झगड़ा न करो । 'अनाग्रही बनो । प्राग्रह से ही शांति की सृष्टि होती है ।'
अपने विचार इस प्रकार के रखना अनेकान्तवाद है तथा वाणी द्वारा उन्हें व्यवहार में प्रयोग करना स्याद्वाद है । इसलिए वाणी में 'ऐसा ही है' कहने के स्थान पर 'यह भी हो सकता है' कहने की सहिष्णुता स्याद्वादी दृष्टिकोण का परिचायक है । केवल 'ही' के स्थान पर 'भी' का प्रयोग अनेक संकटपूर्ण स्थितियों को टाल देता है । “भाई तुम भी किसी सीमा तक ठीक कहते हो" यह कहते ही प्रतिपक्षी का आधा क्रोध शांत हो जाता है । वास्तव में मान कपाय के दमन से उक्त दृष्टिकोण तथा विचारों की उदारता का आविर्भाव व्यक्ति में हो सकता है । "मैं बड़ा आदमी हूं दूसरे नीच हैं", 'मेरी ही बात ठीक है, दूसरों की असत्य', जिन व्यक्तियों में इस प्रकार की भावनाएँ होती हैं वे व्यक्ति अशांति उत्पन्न करने में कारण होते हैं । इस प्रकार की विचारधारा संसार की सुख-शांति वृद्धि में सहायक एवं सर्वकल्याणकारी है ।
भगवान् महावीर ने उक्त सिद्धांतों का प्रतिपादन करते हुए व्रत नियमादि के निरतिचार ( दोष रहित ) पालन का उपदेश दिया । बहुधा
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लोग कोई व्रत-नियम लेकर उसके शाब्दिक पालन मात्र को ही पर्याप्त समझ लेते हैं तथा उस कार्य को स्वयं न करते हुए भी अन्य प्रकार से उसके होने की वाञ्छा करते हैं अथवा व्रतादि के प्राशय को ही भुला देते हैं । जैसे स्वयं हिंसा न करते हुए दूसरे को प्रोत्साहन देना अथवा प्राणी बध न करते हुए अन्य प्रकार से दुःख देने को बुरा न समझना । भगवान् महावीर ने कृत (स्वयं करना ), कारित
( दूसरे से कराना), अनुमोदना ( न स्वयं करना, न दूसरे से कराना परन्तु अनुचित कार्यों का समर्थन करना) तीनों प्रकार से पाप कार्यों का निषेध किया तथा मन, वचन, काम (क्रिया) तीनों से पाप कार्यों से दूर रहने को कहा ।
हिंसादि पापों से बचने के लिए सब प्राणियों से मैत्री भाव, गुणीजनों को देख कर आनन्द, दुखियों के प्रति करुणा तथा विनयहीन उद्दण्ड व्यक्तियों के प्रति माध्यस्थ भाव रखना चाहिए । सांसारिक भोगों से भयभीत रहने तथा वैराग्य भावना रखने से भी प्रात्मिक सुख तथा कल्याण की प्राप्ति हो सकती है |
किसी प्राणी को जान से मार देना ही हिंसा नहीं है, वरन प्रमाद पूर्वक किसी के प्राणों को आघात पहुंचाना भी हिंसा है। यदि विनय तथा विवेकपूर्वक अप्रमादी होकर कार्य किया जाए तो हिंसा का दोष नहीं लगता । रोगी को बचाने की दृष्टि से आपरेशन करते समय यदि रोगी का प्राणान्त हो जाता है तो भी डाक्टर हिंसक नहीं है; दूसरी ओर मछवारे के जाल में चाहे एक भी मछली न फंसे परन्तु प्रयोजन भेद से वह हिंसा का दोषी है ।
इसी प्रकार असत्य केवल झूठ बोलना ही नहीं है, दूसरों को जो बात कष्टप्रद हो वह मिथ्या के ही समान है । काने को काना कहने के समान
महावीर जयन्ती स्मारिका 76
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