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उपाध्याय विनयविजय : व्यक्तित्व एवं कृतित्व निरन्तर स्वाध्याय, पठन-पाठन एवं लेखन में संलग्न रहते थे। इसी का सुफल है के वे ४० कृतियों
का निर्माण कर सके। विचरण विहार
जैन श्रमणाचार के अनुसार जैन साधु चातुर्मास के अतिरिक्त काल में एक स्थान से दूसरे स्थान पर विचरण करते रहते हैं। उपाध्याय विनयविजय ने भी तत्कालीन भारत के अनेक भूभागों को विचरण विहार एवं वर्षावासों से पावन किया। मुख्यतः गुजरात, मारवाड़, एवं मालवा में उनका विचरण रहा। उनके चातुर्मास कहाँ कहाँ पर हुए इसका सम्पूर्ण विवरण तो प्राप्त नहीं होता है, किन्तु उनके द्वारा अपनी कृतियों की पूर्णता के सन्दर्भ में चातुर्मासिक स्थलों की जानकारी उपलब्ध होती है। वे प्रमुख चातुर्मास इस प्रकार हैं- १७२८, १७२६ एवं १७३८ में रांदेर, १७२३ एवं १७३१ में गांधार, १६८६ एवं १७१६ में सूरत, १७०६ में भादर, १७०८ में जूनागढ़, १७१० में राधनपुर (राजधन्यपुर), १७१८ में जोधपुर और १७३७ में रतलाम।। उपाध्यायपदवी
विनयविजय जी आगमों के पारदृश्वा विद्वान् थे, अतः वे उपाध्याय अथवा वाचक पदवी से अलंकृत हुए। इसमें कोई संदेह नहीं, किन्तु उन्हें उपाध्याय पद पर कब आरुढ़ किया गया इसकी जानकारी प्राप्त नहीं होती है। उपाध्याय यशोविजय जी ने उनको वाचकवर उपाधि से सम्बोधित किया
शिष्य श्री विनयविजय वर वाचक सुगुण सोहाया जी।" स्वयं विनयविजय ने अपनी हस्तलिखित प्रति में इस प्रकार उल्लेख किया है
श्री कीर्तिविजयवाचकशिष्योपाध्यायविनयविजयेन।
निजजननीश्रेयोऽथ चित्कोशे प्रतिरियं मुक्ता।।" इस श्लोक में विनयविजय के पूर्व उपाध्याय विशेषण यह स्पष्ट करता है कि विनयविजय जी उपाध्याय पदवी से अलंकृत थे। उन्होंने चित्कोश अर्थात् ज्ञानकोश नामक पुस्तकालय में अपनी माता के श्रेय के लिए कुछ प्रतियाँ रखी थी। उनकी दो हस्तलिखित प्रतियाँ पाटन के भण्डार में विद्यमान हैं। उन्ही में से एक प्रति में उपर्युक्त श्लोक उल्लिखित है। इस श्लोक का उद्धरण 'जैन गुर्जर कवियों' नामक पुस्तक के पृष्ठ ७ पर भी प्राप्त है। कृतित्वपरिचय 1. आगम व्याख्या एवं सज्झाय साहित्य
उपाध्याय विनयविजय को आगम का अच्छा अभ्यास था। वे उसके मर्म को जानते थे।