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लोक-स्वरूप एवं जीव-विवेचन (1) विकलेन्द्रिय जीव-द्वीन्द्रिय जीव की सात लाख करोड़, त्रीन्द्रिय की आठ लाख और चतुरिन्द्रिय की नौ लाख करोड़ कुल संख्या है। पंचेन्द्रिय जीव- जलचर, खेचर, उरपरिसर्प, भुजपरिसर्प जीवों की क्रम से साढ़े बारह, बारह, दस और नव लाख करोड़ कुल संख्या है।
देव, नारकी और मनुष्य के कुल संख्या क्रम से छब्बीस लाख , पच्चीस लाख और चौदह लाख करोड़ हैं।२५
सातवां एवं आठवां द्वार : भवस्थिति और काय स्थिति किसी अवस्था में जीव कितने समय तक रहता है, इसे लोकप्रकाशकार ने तृतीय सर्ग में भवस्थिति (७वाँ) और कायस्थिति (वा) द्वार से स्पष्ट किया है।
किसी क्षेत्र में स्थित वस्तु अथवा जीव की कालमर्यादा स्थिति कहलाती है। 'स्थिति' को राजवार्तिककार और सर्वार्थसिद्धिकार ने भी परिभाषित किया है। पूज्यपादाचार्य ने इसे अधिक स्पष्ट करते हुए लिखा है कि "अपने द्वारा प्राप्त हुई आयु के उदय से उस भव में शरीर के साथ रहना स्थिति कही जाती है।२४०
जैन साहित्य में सान्तर-निरन्तर, सादि-अनादि, स्थिति-बंध आदि भिन्न-भिन्न स्थितियों का कथन प्राप्त होता है, परन्तु लोकप्रकाशकार ने भव और काय के रूप में जीव की स्थिति का वर्णन किया है। एक ही भव या आयुष्य की स्थिति भवस्थिति कहलाती है तथा एक ही प्रकार की काय में निरन्तर जन्म लेने की अवधि कायस्थिति कहलाती है। अतः सामान्य या विशेष रूप पर्याय में पृथ्वीकायादि जीव मृत्यु प्राप्त करके पुनः उसी काय में रहते हैं वह कायस्थिति कहलाती है। कहने का अभिप्राय यह है कि आयुष्य कर्म के कारण एक भव में रहना भवस्थिति है तथा अनेक भवों में एक ही गति, जाति, काय आदि में रहना कायस्थिति है। भवस्थिति के भेद
दो रूपों में भवस्थिति की पूर्णता होने से भवस्थिति के दो भेद माने जाते हैं-सोपक्रम भवस्थिति और निरुपक्रम भवस्थिति
भवस्थितिस्तद् भवायुर्द्विविधं तच्च कीर्तितम् ।
सोपक्रमं स्यात्तत्राद्यं द्वितीयं निरुपक्रमम् ।।* सोपक्रम आयुष्य- सोपक्रम अर्थात् उपक्रम सहित। उपक्रम अर्थात् निमित्तों के द्वारा आयुष्य नष्ट होकर मृत्यु हो जाना सोपक्रम आयुष्य कहलाता है। अध्यवसाय, निमित्त, आहार, वेदना, पराघात, स्पर्श और श्वासोच्छ्वास ये सात उपक्रम हैं, जिनसे आयुष्य नष्ट होता है