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काललोक
329 किन्तु यहाँ कालकृत परत्वापरत्व अभीष्ट है। काल की अपेक्षा पूर्व में होने वाला पर और पश्चात् में होने वाला अपर कहलाता है। यथा राम और दशरथ में राम अपर है और दशरथ पर है। यहाँ पर-अपर का निर्धारण कार्य काल से ही होता है। इस प्रकार ज्येष्ठ-कनिष्ठ के व्यवहार में काल का ही अनुग्रह दिखाई देता है।"
इस प्रकार काल के ये चारों कार्य उसकी पृथक् द्रव्यता सिद्ध करते हैं। कालके प्रकार
स्थानांग सूत्र, तत्त्वार्थराजवार्तिक, षट्खण्डागम", गोम्मटसार", नियमसार आदि ग्रन्थों में काल के प्रकारों की चर्चा की गई है। इनके अनुसार काल तीन प्रकार का है- अतीत, अनागत और वर्तमान। गोम्मटसार के अनुसार काल मुख्य और व्यवहार दो प्रकार का है और अतीत-अनागत आदि व्यवहार काल के भेद हैं। नियमसार में व्यवहारकाल समय और आवलि के भेद से दो प्रकार का अथवा अतीत-अनागतादि भेद से तीन प्रकार बताया गया है।" षट्खण्डागमकार काल के भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से एक से अधिक प्रकार स्वीकार करते हैं१. सामान्य से एक प्रकार का है। २. अतीत, अनागत और वर्तमान की अपेक्षा से तीन प्रकार का है। ३. नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव निक्षेप की अपेक्षा से चार प्रकार का है। ४. गुणस्थिति, भवस्थिति, कर्मस्थिति, कायस्थिति, उपपाद और भावस्थिति. इनकी अपेक्षा से काल छह प्रकार का है। ५. परिणामों से पृथग्भूत काल का अभाव है अतः परिणाम अनन्त होने से काल भी अनन्त प्रकार का है।
विशेषावश्यकभाष्य और लोकप्रकाश में ग्यारह निक्षेपों से काल के प्रकारों का उल्लेख मिलता है। ग्यारह निक्षेप इस प्रकार हैं
कालशब्दस्य निक्षेपाश्चैकादश निरूपिताः । सन्नाम स्थापना कालो द्रव्याऽद्धासंज्ञकौ च तौ।। यथायुष्कोपक्रमाख्यौ देशकालाऽभिधौ च तौ।
प्रमाणवर्णनामाना भावकालश्चेते स्मृताः ।।" १. नामकाल २. स्थापनाकाल ३. द्रव्यकाल ४. अद्धाकाल ५. यथायुष्ककाल ६. उपक्रमकाल ७. देशकाल ८. कालकाल ६. प्रमाणकाल १०. वर्णकाल ११. भावकाल।