Book Title: Lokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Hemlata Jain
Publisher: L D Institute of Indology

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Page 399
________________ 370 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन भावों में कर्मनिरूपण औपशमिक भाव मोहनीय कर्म का ही होता है, क्योंकि इसी कर्म में प्रदेशोदय और विपाकोदय दोनों प्रकार का सर्वतः उपशम होता है, अन्यथा देशतः उपशम आठों कर्मों का होता ही क्षायोपशमिक भाव चार घाति कर्मों (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय) का ही होता है।" केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण का क्षयोपशम भाव नहीं होता है, क्षय ही होता क्षायिक, औदयिक और पारिणामिक ये तीनों भाव आठों कमों से सम्बद्ध हैं। चार घाती कों का क्षय दसवें/बारहवें गुणस्थान के अन्त में और चार अघाती कों का क्षय चौदहवें गुणस्थान के अन्त में होता है। अतः क्षायिक भाव आठों कर्मों का होता है। औदयिक भाव भी आठों कों से सम्बद्ध है। औदयिक भाव के २१ भेदों में अज्ञान प्रथम औदयिक भाव होता है। १. अज्ञान से तात्पर्य ज्ञान का अभाव और मिथ्याज्ञान दोनों से है। ज्ञान का अभाव ज्ञानावरण कर्म का उदयजन्य परिणाम और मिथ्याज्ञान मिथ्यात्वमोहनीय कर्म का उदयजन्य परिणाम है। इसीलिए अज्ञान औदयिक भाव है। २. असिद्धत्व भाव (सिद्धत्व की अभाव रूप अवस्था) आठों कर्मों के उदय का फल है। ३. असंयम अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से उत्पन्न फल है। ४. लेश्या कषायिक-परिणाम स्वीकार करने पर कषायमोहनीय के उदयजन्य और योगपरिणाम स्वीकार करने पर योगत्रयजनक कर्म के उदय का परिणाम है। अतः लेश्या उदयजन्य भाव ५. कषाय की उत्पत्ति कषाय मोहनीय कर्म के उदय से होती है। ६. नरक-तिथंच आदि गतियाँ स्वनाम वाले गतिनामकर्म के उदय का परिणाम है। ७. वेद-द्रव्य और भाव दोनों प्रकार का औदयिक भाव है। आकृति रूप द्रव्यवेद अंगोपांग नामकर्म के उदय से और भाववेद पुरुष, स्त्री, नपुंसकवेद नोकषायमोहनीय के उदय से होता है। ८. अतत्त्वश्रद्धानरूप मिथ्यात्व मिथ्यात्वमोहनीय के उदय का परिणाम है। इस प्रकार औदयिक भाव अष्टकर्मों से सम्बद्ध है।"

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