Book Title: Lokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Hemlata Jain
Publisher: L D Institute of Indology

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Page 408
________________ भावलोक 379 से सम्बन्धित है, इसलिए कर्मस्कन्ध में औदयिक भाव है। कर्मग्रन्थ के व्याख्याकार मिश्रीमल जी महाराज कर्म पुद्गलों में पांचों भाव स्वीकार करते हैं।" ___ समीक्षण 'औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च' उमास्वाति का यह सूत्र आत्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में जैनदर्शन का अन्य दर्शनों के साथ मन्तव्य भेद स्पष्ट करता है। सांख्यदर्शन के अनुसार आत्मा कूटस्थनित्य है। वह ज्ञान, सुख-दुःख आदि परिणामों को प्रकृति या अविद्या के ही परिणाम मानता है। वैशेषिक और नैयायिक आत्मा को एकान्तनित्य (अपरिणामी) मानते हैं। बौद्ध दर्शन के अनुसार आत्मा एकान्तक्षणिक अर्थात् निरन्वय परिणामों का प्रवाह मात्र है। वेदान्त में ब्रह्म के अतिरिक्त सत् नहीं है। जैनदर्शन के अनुसार जड़ पदार्थों में न तो कूटस्थनित्यता है और न एकान्तक्षणिकता है, किन्तु परिणामिनित्यता है। उसी प्रकार आत्मा भी परिणामिनित्य है। अतएव ज्ञान, सुख, दुःख आदि पर्याय आत्मा के ही हैं। आत्मा की इन पर्याय परिणमन से भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ बनती हैं। पर्यायों की ये भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ ही 'भाव' कहलाती हैं। आत्मा की पर्याय अधिक से अधिक पाँच भाव वाली हो सकती हैं। ये पाँच भाव हैं- १. औपशमिक २. क्षायिक ३. क्षायोपशमिक ४. औदयिक ५. पारिणामिक। कुछ जैनाचार्यों के मत में छठे भाव के रूप में सान्निपातिक भाव भी स्वीकार किया जाता है। उपाध्याय विनयविजय भी लोकप्रकाश में छह भावों का निरूपण करते हैं। भावलोक के इस अध्याय के सम्बन्ध में कुछ बातें निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं१. औपशमिकादि छहों भाव जीवों की पर्याय से सम्बद्ध हैं, किन्तु अजीवों में भी औदयिक एवं पारिणामिक भाव स्वीकार किए जाते हैं। २. घातीकों का दबना या रुकना 'औपशमिक भाव' इन्हीं कमों का आत्यन्तिक उच्छेद या क्षय "क्षायिक भाव', उदीर्ण कमों के अभाव से क्षय तथा अनुदीर्ण कर्मों के उदय को रोकने से इन दोनों (क्षय व उपशम) से उत्पन्न भाव ‘क्षायोपशमिक भाव' कर्मों के विपाक द्वारा उदित भाव 'औदयिक भाव;, द्रव्यों का स्वाभाविक स्वरूप परिणमन 'पारिणामिक भाव' एवं एक साथ दो, तीन, चार अथवा पाँच भावों में परिणमित भाव ‘सान्निपातिक भाव' हैं। ३. कर्मों के उदय होने पर कुछ कर्म बिना सुख-दुःख का वेदन कराए निर्जरित हो जाते हैं और कुछ फल का अनुभव अवश्य कराते हैं। इन कर्मों के उदय को क्रमशः प्रदेश और विपाक उदय कहते हैं। औपशमिक भाव में इन दोनों प्रकार से सम्बद्ध कर्मों का उदय रूक जाता है। किन्तु क्षायोपशमिक भाव में प्रदेश रूपी कर्मोदय होता है, विपाक कर्मोदय नहीं।

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