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भावलोक इस चतुर्भगी द्वारा स्पष्टतया ज्ञात कर सकते हैं।७२
औपशमिक सम्यक्त्व और चारित्र दोनों की स्थिति सादि सांत है, क्योंकि मिथ्यात्व के ग्रन्थि भेद होने पर औपशमिकसम्यक्त्व और उपशम श्रेणि प्रारम्भ करने पर औपशमिक सम्यक्त्व एवं चारित्र दोनों आरम्भ होते हैं, अतः सादि है। उपशम भाव से जीव का अवश्यमेव पतन होता है, इसलिए सांत है। इस प्रकार औपशमिक भाव में मात्र एक भंग सादि-सांत घटित होता है, शेष तीन नहीं।
___क्षायिक भाव के क्षायिक चारित्र और क्षायिक दानादि पंच लब्धियाँ सादि सांत होते हैं। " 'सिद्धे नो चरित्ती आगम के इस वाक्य के अनुसार सिद्ध को चारित्र, अचारित्र और चरित्राचरित्र तीनों ही नहीं होते हैं। क्षीणमोह में ही इसका अभाव हो जाता है। चतुर्थ गुणस्थान से इसका आरम्भ होता है। अतः यह भाव सादि-सांत है। क्षायिकसम्यक्त्व, केवलज्ञान तथा केवलदर्शन इन तीन की अपेक्षा से क्षायिक भाव सादि अनन्त है। अनादि सांत और अनादि अनन्त ये दोनों विभाग क्षायिक भाव में संभव नहीं है। अतः क्षायिक भाव में चतुर्भगी के दो विभाग सादि-सांत और सादि-अनन्त होते हैं। छाद्मस्थिक ज्ञान
मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान की अपेक्षा से क्षायोपशमिक भाव सादि सान्त है। सम्यक्त्व के होने पर इन ज्ञानों की उत्पत्ति होती है और मिथ्यात्व अथवा केवलज्ञान होने पर इनका अन्त हो जाता है। इसलिए ये ज्ञान सादि-सान्त हैं। मतिअज्ञान और श्रुतअज्ञान भव्य जीव की अपेक्षा अनादि-सांत हैं तथा अभव्य जीव की अपेक्षा से अनादि-अनन्त हैं। इसी प्रकार अचक्षुदर्शन सम्बन्धी क्षायोपशमिक भाव भी भव्य जीव के कारण अनादि-सांत और अभव्य की अपेक्षा से अनादि-अनन्त है। विभंगज्ञान, अवधिज्ञान, चक्षुदर्शन, दानादि पंच लब्धियाँ, देशविरति, सर्वविरति और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व इन ग्यारह प्रकार के विषयों में क्षायोपशमिक भाव सादि-सांत होता है।" क्षायोपशमिक भाव के चतुर्भगी का सादि-अनन्त विभाग नहीं होता है। इस प्रकार यह भाव सादि-सांत, अनादि-सांत और अनादि-अनन्त है।
गति औदयिक भाव सादि-सांत है क्योंकि नर, देव, तिर्यक् और नरक गति सादि-सान्त होते हैं। तीन वेद, चार कषाय, छह लेश्याएँ, मिथ्यात्व, असिद्धत्व, अज्ञान और असंयम रूप सत्रह
औदयिक भाव भव्य जीव की अपेक्षा से अनादि-सांत और अभव्य जीव की अपेक्षा से अनादि अनन्त हैं।" सादि-अनन्त विभाग औदयिक भाव का नहीं होता है। अतः औदयिक भाव में चतुभंगी के