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भावलोक
भाव होते हैं। चौथे से सातवें गुणस्थान में औदयिक, पारिणामिक एवं क्षायोपशमिक अथवा क्षायिक ये चार भाव होते हैं। सातवें से चौदहवें पर्यन्त गुणस्थान में औदयिक भाव के
उत्तरभेद होते हैं। प्रथम से चौदहवें तक पारिणामिक एवं सान्निपातिक भाव रहता है। १४.औपशमिक भाव सादि-सान्त, क्षायिक भाव सादि-सांत और सादि-अनन्त होता है।
क्षायोपशमिक भाव सादि-सान्त, अनादि सांत और अनादि अनन्त है। औदयिक भाव में सादि-अनन्त को छोड़कर शेष तीनों विभाग होते हैं। पारिणामिक भाव सादि-सान्त और
अनादि-सान्त है। १५.ये छहों भाव जीव से सम्बन्धित होते हैं। एक जीव में एक साथ अधिकतम पाँच भाव हो
सकते हैं। मुक्त जीवों में क्षायिक और पारिणामिक दो भाव होते है। अजीव से सम्बन्धित दो ही भाव औदयिक और पारिणामिक हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय
और कालद्रव्य इन चार में एक पारिणामिक भाव अनादि अनन्त स्थिति वाला होता है।
जीवों के भावों का यह विवेचन जैनदर्शन का वैशिष्ट्य है। जीव के आन्तरिक आत्मिक एवं चैतसिक परिणामों का यह विवेचन भारतीय धर्म-दर्शनों की आध्यात्मिक दृष्टि का महत्त्व उजागर करता है। जैनदर्शन का यह भाव-विवेचन बौद्धदर्शन के चित्त-चैतसिकों के प्रतिपादन से भी विशिष्ट है। बौद्ध-दर्शन के मनोवैज्ञानिक प्रतिपादन की प्रशंसा की जाती है, किन्तु आत्मा को नित्य परिणामी मानने वाले जैनदर्शन में जीवों के आत्म-विकास की स्थिति के प्रतिपादन में इन पाँच या छह भावों का निरूपण निश्चित ही जैनदर्शन की सूक्ष्मता का संकेत करता है।
संदर्भ
१. लोकप्रकाश, 36.3-6 २. मोहनीय कर्म के दर्शन मोहनीय के तीन भेद-मिथ्यात्व, मिश्र और सम्यक्त्व एवं चारित्र मोहनीय के
चार भेद-अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ कुल सात भेदों को दर्शन सप्तक कहा जाता है। ३. (क) लोकप्रकाश, 36.7
(ख) प्रवचनसारोद्धार, द्वार 149, गाथा ४. लोकप्रकाश, 36.139 ५. सम्यक्त्वं यद्भवत्यादौ ग्रन्थिभेदादनंतरं।
स्याद्यच्चोपशमश्रेण्यां सम्यक्त्वं चरणं तथा। द्वावौपशमिको भावौ प्रोक्तावेतौ महर्षिभिः।।-लोकप्रकाश, 36.34, 35 जिनवाणी सम्यग्दर्शन विशेषांक, अगस्त 1996, श्री प्रेमचन्द कोठारी के लेख 'सम्यक्त्व प्राप्ति की
प्रक्रिया से उद्धृत, पृष्ठ सं. 132 ७. लोकप्रकाश, 36.8
ये ज्ञानदर्शने स्यातां निर्मूलावरणक्षयात्। सम्यक्त्वं यच्च सम्यक्त्वं मोहनीयक्षयोदभवं। चारित्रं यच्च चारित्रमोहनीय क्षयोत्थितं।