Book Title: Lokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Hemlata Jain
Publisher: L D Institute of Indology

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Page 388
________________ भावलोक 359 समान औपशमिक भाव एक प्रकार की आत्मिक शुद्धि है, जिसमें आत्मा पर लगा मिथ्यात्व रूपी मल शान्त होता है, पूर्णतया क्षय नहीं होता है। मोहनीय कर्म के दर्शन सप्तक' का उपशम होने पर सम्यक्त्व प्रकट होता है, अतः इस आत्म परिणाम विशेष को औपशमिक-सम्यक्त्व कहते हैं। उपशम की स्थिति में प्रदेश और विपाक दोनों प्रकार से कर्मों का उदय नहीं होता है। प्रदेशोदय से तात्पर्य है जीव के कर्मों का उदय होने पर कर्मपुद्गल बिना सुख-दुःख का वेदन कराए उदय में आकर निर्जरित हो जाते हैं। विपाकोदय से तात्पर्य है कि जीव कुछ कर्म के फल का अनुभव अवश्य करता है, भले ही उसके रसबन्ध में मन्दता आ जाए, परन्तु उसकी स्थिति बनी रहती है। अर्थात् ये कर्मोदय सुख-दुःख का अनुभव कराकर ही निर्जरित होते हैं। इस भाव में इन प्रदेश और विपाक दोनों प्रकार के कर्मोदय का अभाव होने से यह भाव सर्वोपशम कहलाता है। लोकप्रकाशकार इस प्रकार के सर्वोपशम को औपशमिक भाव स्वीकार करते यः प्रदेशविपाकाभ्यां कर्मणामुदयोऽस्य यत्। विष्कंभणं स एवौपशमिकस्तेन वा कृतः।।' - अर्थात् प्रदेश एवं विपाक दोनों प्रकार से सम्बद्ध कर्म का उदय रूक जाना औपशमिक भाव चतुर्थ, पंचम, षष्ठ और सप्तम इन चार गुणस्थानों में से किसी भी गुणस्थान में उपशमश्रेणिभावी आत्मा को औपशमिक भाव हो सकता है, परन्तु अष्टम गुणस्थान में उसे औपशमिक भाव की अवश्य प्राप्ति होती है। उपशम सदैव मोहनीय कर्म का ही होता है उपशमोऽत्रानुदयावस्था भस्मावृत्ताग्निवत् । स मोहनीय एव स्यान्न जात्वन्येषु कर्म च ।। " भस्म से ढकी अग्नि की भाँति मोहनीय कर्म की अनुपम अवस्था को उपशम कहते हैं। यह उपशम मोहनीय कर्म का ही होता है, अन्य किसी कर्म का नहीं। मोहनीय कर्म से सम्बन्धित होने के कारण औपशमिक भाव के भी मोहनीय कर्मवत् दो भेद स्वीकार किये जाते हैं-१. औपशमिक सम्यक्त्व २. औपशमिक चारित्रा' औपशमिक सम्यक्व- मिथ्यात्व मोहनीय (मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और मिश्र) कर्मोदय के उपशम से और चारित्रमोहनीय कर्म (अनन्तानुबंधी क्रोध, अनन्तानुबंधी मान, अनन्तानुबन्धी माया एवं अनन्तानुबंधी लोभ) के उपशम से उत्पन्न आत्मपरिणाम औपशमिक सम्यक्त्व कहलाता है। औपशमिक चारित्र- उपशम श्रेणी में आरोहण करने वाले उपशम सम्यक्त्वी को मोहकर्म की

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