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अष्टम अध्याय
भावलोक
जीव एवं अजीव द्रव्यों का प्रतिक्षण पर्याय परिणमन हो रहा है। इन द्रव्यों की पर्याय-परिणमन के कारण विभिन्न अवस्थाएँ बनती हैं, जिन्हें भाव कहा जाता है। जीवादि का जो स्वभाव है वह भी भावों के अन्तर्गत आता है। भावों का विवेचन जैन धर्म की विशेषता है। इसमें मुख्यतः जीवों के भावों की चर्चा है, किन्तु पारिणामिक भाव धर्मास्तिकाय आदि अजीव द्रव्यों में भी पाया जाता है। अतः सभी द्रव्यों की गुण-पर्यायों की अवस्था की चर्चा भावों के द्वारा करना इस अध्याय का विचारणीय विषय है।
जैन दर्शन में पांच भाव प्रसिद्ध हैं- १. औपशमिक २. क्षायिक ३. क्षायोपशमिक ४. औदयिक एवं ५. पारिणामिक। कुछ जैनाचार्यों के मत में छठे भाव के रूप में सान्निपातिक भाव का वर्णन किया गया है। लोकप्रकाशकार उपाध्याय विनयविजय भी छह भावों का निरूपण करते हैं। ये छहों भाव जीवों की पर्यायों से सम्बद्ध हैं, किन्तु अजीवों में मात्र पारिणामिक भाव अथवा कहीं औदयिक भाव स्वीकार किया गया है। लोकप्रकाश में छह भाव इस प्रकार उल्लिखित हैंस्वतस्तैहेतुभिर्वा
तत्तद्रूपतयात्मनां । भवनान्यौपशमिकादयो भावाः स्मृता इति।। भवन्त्यमीभिः पर्यायैर्यद्वोपशमनादिभिः । जीवानामित्यमी भावास्ते च षोढा प्रकीर्तिताः ।। आद्यस्तत्रौपशमिको द्वितीयः क्षायिकाह्वयः । क्षायोपशमिको भावस्तार्तीयीको निरूपितः ।। तुर्यः औदयिको भावः पंचमः पारिणामिकः ।
द्वयादिसंयोगनिष्पन्नः षष्ठ: स्यात्सान्निपातिकः ।। ' अर्थात् स्वतः अथवा विभिन्न हेतुओं से आत्मा की उन-उन रूपों में परिणति होना औपशमिक आदि भाव कहे गए हैं। अथवा उपशमन आदि पर्यायों से जीवों के छह प्रकार के भाव होते हैं- १. औपशमिक २. क्षायिक ३. क्षायोपशमिक ४. औदयिक ५. पारिणामिक एवं ६. सान्निपातिका औपशमिकभाव ___घाती कमों के उदय का रुक जाना अथवा दबना उपशम कहलाता है। उपशम की अवस्था में आत्मा की पर्याय के भाव औपशमिक कहलाते हैं। मैल के तल में बैठने पर हुए स्वच्छ जल के