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लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन अन्य प्रकृतियों (दर्शन सप्तक से भिन्न) का उपशम होने पर औपशमिक चारित्र भाव प्रकट होता है। इसका तात्पर्य है औपशमिक चारित्र में समस्त मोहनीय कर्म का उपशम होता है।
____ औपशमिक भाव का काल जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त माना जाता है। यह भाव एक भव में जघन्य एक बार एवं उत्कृष्ट दो बार प्राप्त होता है और अनेक भवों की अपेक्षा जघन्य दो बार एवं उत्कृष्ट पाँच बार प्राप्त हो सकता है। क्षायिक भाव
मोहनीय कर्म, ज्ञानावरण कर्म, दर्शनावरण कर्म एवं अन्तराय कर्म के आत्यन्तिक उच्छेद से उत्पन्न आत्मा का विशुद्ध भाव क्षायिक भाव कहलाता है। कहा भी है-.
क्षयः स्यात्कर्मणामात्यन्तिकोच्छेदः स एव यः ।
अथवा तेन निर्वृतो यः स क्षायिक इष्यते।। सर्वथा मैल रहित नितान्त स्वच्छ जल के समान यह भाव आत्मा की परमविशुद्धि है जो घाती कर्म सम्बन्ध के सर्वथा छूटने अथवा क्षय होने पर प्रकट होती है। इस भाव को प्राप्त करने वाला जीव पुनः कभी मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं करता है। दर्शनमोहत्रिक एवं अनन्तानुबन्धी चतुष्क का पूर्णतः क्षय होने पर क्षायिक सम्यक्त्व प्रकट होता है, जो क्षायिक भाव है। सर्वप्रथम यही क्षायिक भाव प्रकट होता है। तत्पश्चात् केवलज्ञानावरण के क्षय से केवलज्ञान, केवलदर्शनावरण कर्म के क्षय से केवलदर्शन, चारित्र मोहनीय (अप्रत्याख्यानावरण आदि कषाय एवं हास्यादि नोकषाय) के क्षय से क्षायिक चारित्र तथा दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय इन पाँच अन्तराय कर्मों के क्षय होने पर क्षायिकदान आदि पाँच क्षायिक भाव प्रकट होते हैं। अतः क्षायिक भाव नौ प्रकार का कहा जाता है - १. क्षायिक सम्यक्त्व २. क्षायिक चारित्र ३. केवलज्ञान ४. केवलदर्शन ५. अनन्त दान ६. अनन्त लाभ ७. अनन्त भोग ८. अनन्त उपभोग एवं ६. अनन्त वीर्य।
जीव यदि आयुष्य बन्ध के पश्चात् यह क्षायिक भाव प्राप्त करता है तब वह तीन अथवा चार भवों में मुक्ति प्राप्त कर लेता है और यदि उसने यह भाव आयुबन्ध से पूर्व प्राप्त कर लिया हो तो वह निश्चित ही उसी भव में मुक्तिगामी बन जाता है। क्षायिक भाव की उत्पत्ति का हेतु कर्मघात
क्षायिक भाव एक बार प्राप्त होने पर पुनः जाता नहीं है इसीलिए इसकी स्थिति अनन्त है। इसके अधिकारी भी औपशमिकभाववालों से अधिक होते हैं। अतः लोकप्रकाशकार कहते हैं
भूरिभेदो भूरिकालो भूरिस्वामिक एव च ।