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लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन उत्पन्न होते हैं। गति
गतयो देवमनुजतिर्यग्नरकलक्षणाः ।
भवन्तीह गतिनामकर्मोदयसमुद्भवाः ।। गतिनामकर्म के उदय से प्राप्त नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवभाव गति औदयिक भाव कहलाते हैं।
वेद
नोकषायमोहनीयोदयोद्भूता भवन्तयथ।
स्त्रीपुंनपुंसकाभिख्या वेदाः खेदाश्रया भृशं ।। नोकषायवेद मोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न स्त्री, पुरुष और नपुंसक रूप परिणाम वेदऔदयिक भाव कहलाते हैंमिथ्यात्व
मिथ्यात्वमपि मिथ्यात्वमोहनीयोदयोद्गतम्।।" मिथ्यादर्शन के उदय से तत्त्वों का अश्रद्धान रूप परिणाम मिथ्यात्व औदयिक भाव कहलाता
इस प्रकार औदयिक भाव के इक्कीस प्रकार स्वीकार किए जाते हैं। यद्यपि जीव को कर्मोदय से अन्य भाव भी प्राप्त होते हैं परन्तु सावर्ण्य/साहचर्य की अपेक्षा से अन्य भावों का अन्तर्भाव इक्कीस प्रकारों में कर लिया जाता है। पारिणामिक भाव
द्रव्यों का स्वाभाविक स्वरूप परिणमन पारिणामिक भाव कहलाता है। द्रव्यों का स्वाभाविक परिणाम कभी परिवर्तित नहीं होता है। यथा जीव द्रव्य का जीवत्व, भव्यत्व एवं अभव्यत्व, धर्मास्तिकाय का गति, अधर्मास्तिकाय का स्थिरता, आकाशास्तिकाय का अवगाहन, काल का वर्तन और पुद्गल का पूरण-गलन स्वभाव कभी भी परिवर्तित नहीं होते है।
ये पारिणामिक भाव न तो कर्म के उदय से, न उपशम से, न क्षय से और न क्षयोपशम से उत्पन्न होते हैं, ये स्वाभाविक ही होते हैं।
जीवत्वमथ भव्यत्वमभव्यत्वमिति त्रयः । ___ स्युः पारिणामिका भावा नित्यमीदृक् स्वभावतः ।। जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ये तीन अनादि पारिणामिक भाव हैं। ये तीनों भाव जीव द्रव्य भिन्न धर्मास्तिकायादि में नहीं होते हैं। यद्यपि जीव में अस्तित्व, अन्यत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व,