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लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन यथा परमाणु की संख्या घटना-बढ़ना, मेघ का छोटा-बड़ा बनना, इन्द्रधनुष का कभी बनना-कभी नहीं बनना इत्यादि स्वाभाविक परिणाम हैं।
'केवलोऽजीवद्रव्यस्य यः स वैनसिको भवेत्। ..
परमाण्वāदधनुः परिवेषादि रूपकः ।। ७५ 3. मिश्र परिणाम- जीव के प्रयोग से किसी अजीव द्रव्य के स्वभाव में होने वाला परिवर्तन मिश्र परिणाम होता है। यथा कुम्हार के प्रयत्न से मिट्टी का घट बनना, स्वर्णकार द्वारा स्वर्ण का कुण्डल अथवा मुद्रा का बनाना आदि मिश्र परिणाम है।
प्रयोगसहचारिता, चेतनद्रव्यगोचरः । ___ परिणामः स्तंभकुंभादिकः स मिश्रको भवेत् ।।" तत्त्वार्थराजवार्तिककार सादि परिणाम को दो ही प्रकार से स्वीकार करते हैं- प्रयोगजन्य और स्वाभावजन्या क्रियाकाअनुग्रह कर्ता काल'
देशान्तर प्राप्ति हेतु पदार्थ का परिस्पन्दात्मक पर्याय परिणमन ही क्रिया है- 'क्रिया देशान्तरप्राप्तिः।" पदार्थों की गमन, भ्रमण, आकुंचन आदि रूपों में देशान्तर प्राप्ति रूप क्रियाएँ होती हैं। इस क्रिया का अनुग्रह करने वाला काल है।
'भूतत्व-वर्तमानत्व-भविष्यत्व विशेषणा।
यानस्थानादिकार्याणां या चेष्टा सा क्रियोदिता।। क्रिया भी तीन प्रकार से होती है - 1. प्रयोगजा क्रिया- जीव के व्यापार से उत्पन्न होने वाली क्रिया प्रयोगजा क्रिया होती है। यथा मनुष्य के दौड़ने पर उसकी श्वासोच्छ्वास क्रिया का शीघ्रता से चलना। 2.विससजा क्रिया- अजीव द्रव्य से उत्पन्न होने वाली क्रिया विनसजा क्रिया होती है। यथा मेघ का एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना। 3.मिश्र क्रिया-जीव और अजीव के संयोग से उत्पन्न होने वाली क्रिया मिश्र क्रिया होती है। यथा मनुष्य के द्वारा कोई भी वाहन चलाना।
तत्त्वार्थराजवार्तिककार क्रिया के भी दो ही प्रकारों प्रायोगिक और स्वाभाविक को अंगीकृत करते हैं।
कोई भी पदार्थ जिस द्रव्य या पदार्थ के आश्रय से प्रथम होता है वह पर और बाद में होने वाला है वह अपर कहलाता है। प्रशंसा, क्षेत्र और कालकृत ये तीन भेद परत्व-अपरत्व के होते हैं।