Book Title: Lokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Hemlata Jain
Publisher: L D Institute of Indology

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Page 379
________________ 350 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन काल का निरूपण किया गया है। काल के पृथक द्रव्यत्व की सिद्धि में नियमसार टीका में कहा गया है कि पाँचों अस्तिकाय की निमित्तता का कारण काल है। कालद्रव्य के वर्तन गुण से ही पाँचों अस्तिकायों की वर्तना होती है। स्वयं वर्तन करने में वे पूर्ण समर्थ नहीं है। ६. काल द्रव्य के मुख्यतः पाँच उपकार या कार्य हैं- वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व। ७. कालद्रव्य स्पर्श, रस, गंध और वर्ण रहित होता है तथा अगुरुलघु गुण सहित होता है। ८. काल अप्रदेशी है अथवा एक प्रदेशी है। इसीलिए इसे अनस्तिकाय भी स्वीकार किया गया है। इसके कालाणुओं में स्नेह गुण नहीं होता है इसलिए ये समस्त लोक में रत्नराशि की तरह बिखरे रहते हैं। बहुप्रदेशों के अभाव से इसमें कायत्व नहीं होता। ६. काल के प्रकारों का अनेकविध वर्गीकरण हो सकता है। एक वर्गीकरण के अनुसार काल के तीन प्रकार हैं- अतीत, अनागत और वर्तमान। काल के दो प्रकार भी हैं-मुख्य और व्यवहार। मुख्य काल को निश्चय काल भी कहते हैं जो कालाणुओं के रूप में अन्य द्रव्यों की पर्याय परिणमन में सहायक होता है। व्यवहारकाल के अन्तर्गत अतीत, अनागत और वर्तमान को रखा जाता है। समय, आवलिका, मुहूर्त आदि की गणना भी इसी व्यवहार काल में होती है। काल के चार प्रकार भी हैं- नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। गुणस्थिति और भावस्थिति के आधार पर काल के छह प्रकार कहे गए हैं। परिणमन के अनन्त होने से काल को अनन्त भी कहा गया है। विशेषावश्यकभाष्य और लोकप्रकाश में काल के ग्यारह प्रकार निरूपित हैं- नामकाल, स्थापनाकाल, द्रव्यकाल, अद्धाकाल, यथायुष्ककाल, उपक्रमकाल, देशकाल, कालकाल, प्रमाणकाल, वर्णकाल और भावकाला इनमें प्रमाणकाल का जैनदर्शन में विशेष निरूपण हुआ है। जिस काल के द्वारा वर्ष, सागरोपम, पल्योपम आदि को मापा जाता है वह प्रमाणकाल है। यह अद्धाकाल का ही एक प्रकार है तथा मनुष्यक्षेत्र में इसका व्यवहार होता है। लोकप्रकाशकार ने प्रमाणकाल के दो प्रकार से तीन भेद निरूपित किए हैं।प्रथम प्रकार के अनुसार अतीत, अनागत और वर्तमान ये प्रमाणकाल के तीन भेद हैं। द्वितीय वर्गीकरण में प्रमाणकाल के तीन प्रकार संख्यात, असंख्यात और अनन्त हैं। इनमें एक समय से लेकर शीर्षप्रहेलिका तक का काल संख्यातकाल है, पल्योपम, सागरोपम आदि औपमिक काल असंख्यातकाल है तथा पुद्गलपरावर्त आदि अनन्तकाल है। १०.जैनदर्शन में पल्योपम, सागरोपम, पुद्गलपरावर्त आदि कालभेदों का निरूपण अन्य

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