Book Title: Lokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Hemlata Jain
Publisher: L D Institute of Indology

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Page 377
________________ 348 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन है, तदनन्तर उसके समीपवर्ती अनन्तर द्वितीय अनुभागबंध-स्थान में मरता है, तत्पश्चात् उसके अनन्तरवर्ती तृतीय अनुभागबंधस्थान में मरता है। इस प्रकार क्रम से समस्त अनुभागबंधस्थान में मरने पर जीव को जितना काल लगता है, वह काल सूक्ष्मभावपुद्गलपरावर्त कहलाता है। अणुभागट्ठाणेसु अणंतरपरंपराविभत्तेहिं। भावंमि बायरो सो सुहुमो सब्वे सणुक्कमसो।।" इस प्रकार उपाध्याय विनयविजय ने काल के सूक्ष्म और बादर भेद रूपी पुद्गलपरावतों का उल्लेख किया है। समीक्षण प्रस्तुत अध्याय में काल-विषयक विवेचन से निम्नांकित निष्कर्ष फलित होते हैं१. काल का व्यवहार अनादि अनन्त है। अतः काल विषयक चिन्तन भी प्राचीन काल से होता रहा है। ऋग्वेद का कालसूक्त" इसका साक्षी है, जिसमें काल को ऐसा परमतत्त्व निरूपित किया है, जिसने प्रजा को उत्पन्न किया है, स्वयंभू कश्यप भी जिससे उत्पन्न हुए हैं, ब्रह्म, तप और दिशाएँ भी उसी से उत्पन्न हुई हैं तथा सूर्य भी उसी से उदित होता है। पुराण में उसे नारायण एवं ईश्वर भी कहा गया है। भगवद्गीता में श्रीकृष्ण स्वयं को काल कहते हैं। इस प्राचीन चिन्तन के आधार पर कालवाद नामक सिद्धान्त स्थापित हुआ, जिसकी मान्यता है कि काल से ही समस्त कार्य सम्पन्न होते हैं। इस कालवाद की मान्यता का उल्लेख श्वेताश्वतरोपनिषद् के 'कालःस्वभावो नियतिर्यदृच्छा आदि श्लोक में प्राप्त होता है। जैन दार्शनिक सिद्धसेनसूरि ने 'कालोसहाव णियई" इत्यादि गाथा में इसका संकेत किया है। गौडपादकारिका में 'कालात्प्रसूतिं भूतानां मन्यन्ते कालचिन्तकाः कथन से भी कालवाद की पुष्टि होती है। २. वैशेषिक, न्याय, सांख्य, योग, वेदान्त, व्याकरण, बौद्ध एवं जैनदर्शन में काल विषयक चर्चा प्राप्त होती है। इन दर्शनों में कालवाद का समर्थन नहीं हुआ है। ये दर्शन कार्य की उत्पत्ति में काल को साधारण कारण स्वीकार करते हैं। मात्र काल से कार्य की उत्पत्ति नहीं मानते हैं। वैशेषिक दर्शन में काल को द्रव्य के रूप में स्थापित किया गया है तथा इसमें युगपत, क्षिप्र, चिर, क्रम, यौगपद्य, परत्व-अपरत्व आदि हेतुओं से काल की सिद्धि की गई है। न्यायदर्शन में इसे द्रव्य तो नहीं कहा गया किन्तु स्वरूप वैशेषिक दर्शन की भाँति स्वीकार किया गया है। सांख्यदर्शन में इसे आकाश के समान विभु एवं उसी का स्वरूप माना गया है। योगदर्शन में क्षण को वास्तविक स्वीकार करते हुए मुहूर्त अहोरात्र आदि व्यवहार को बुद्धिकल्पित माना

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