Book Title: Lokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Hemlata Jain
Publisher: L D Institute of Indology

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Page 355
________________ 326 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन गोयमा! णो इण→ समठे। एगपदेसूणे वि य णं भंते! धम्मत्थिकाए 'धम्मत्थिकाए' त्ति वत्तव्वं सिया?णो इणढे समठे। से केणढेणं भंते। एवं वुच्चइ ‘एगे धम्मत्थिकायपदेसे नो धम्मत्थिकाए त्ति वत्तव्वं सिया जाव। एकपदेसूणे वि य णं धम्मत्थिकाए नो धम्मत्थिकाए त्ति वत्तव् सिया?से नूणं गोयमा! खंडे चक्के?सगले चक्के? भगवं! नो खंडे चक्के, सगले चक्के। एवं छत्ते चम्मे दंडे दूसे आयुहे मोयए । से तेणट्टेणं गोयमा! एवं वुच्चइ- 'एगे धम्मत्थिकायपदेसे नो धम्मत्थिकाए त्ति वत्तव् सिया जाव एकपदेसूणे वि य णं धम्मत्थिकाए नो धम्मत्यिकाए त्ति वत्तव्वं सिया?से किं खाई णं भंते! 'धम्मत्थिकाए' त्ति वत्तव्वं सिया?गोयमा! असंखेज्जा धम्मत्थिकायपदेसा ते सब्वे कसिणा पडिपुण्णा निरवसेसा एगग्गहणगहिया, एस णं गोयमा! 'धम्मत्थिकाए' त्ति वत्तव्वं सिया।" व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में धर्मास्तिकायवत् अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय का भी अखण्ड स्वरूप में अस्तिकायत्व स्वीकार किया गया है। इस संवाद से यह निष्कर्ष निकलता है कि अस्तिकाय और द्रव्य में यह भेद है कि अस्तिकाय में अखण्ड और निरवशेषरूप का ग्रहण होता है जबकि द्रव्य में स्कन्ध अथवा अंश रूप में ग्रहण होता हैं। यथा- जब समस्त पुद्गलद्रव्यों का अखण्डरूप प्राप्त होगा तब ही वह पुद्गलास्तिकाय कहा जायेगा और जब पुद्गल अंशरूप पुस्तक, भवन, कलम आदि रूप में प्राप्त होगा तब वही पुद्गल पुद्गलद्रव्य कहा जायेगा। पुस्तक, भवनादि द्रव्य स्वरूप तो है, परन्तु पुद्गलास्तिकाय नहीं है। इसी प्रकार जीवास्तिकाय में समस्त जीवों का ग्रहण होत है, किन्तु पृथक् पृथक् रूप जीव जीवद्रव्य ही कहलाता है। इस प्रकार अस्तिकाय और द्रव्य का सूक्ष्म भेद आगम में उपलब्ध होता है। अतः काल द्रव्य स्वरूप में स्वीकृत है, परन्तु उसका अखण्ड स्वरूप न होने से तथा प्रदेशों का प्रचय नहीं होने से वह अस्तिकाय नहीं है। कालद्रव्यके कार्य तत्त्वार्थसूत्र में काल के उपग्रह अथवा कार्य का प्रतिपादन करते हैं- 'वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्यः अर्थात् वर्तना, परिणाम, क्रिया और परत्वापरत्व ये काल के कार्य हैं। 'वत्तणा लक्खणो कालो" इस आगम पंक्ति के अनुसार वर्तना काल का लक्षण भी है और वही उसका मुख्य कार्य भी है, जिसके निमित्त से धर्मास्तिकायादि द्रव्यों में परिवर्तन होता रहता है। वर्तते वर्तनमात्रं वा वर्तना, वृतेर्ण्यन्तात्कर्मणि भावे वा युक् तस्यानुदात्तत्वाद्वा ताच्छीलको वा युच् वर्तनशीला वर्तनेति।

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