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लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी कालचक्र
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द्वादश (षष्ठ) सुषमसुषमाकाल
प्रथम सुषमसुषमाकाल
द्वितीय
सुषमाकाल
एकादश (पंचम) सुषमाकाल
कोटाकोटि
कोटाकोटि
3
.
कोटाकोटि
अवसपिणी काल
कोटाकोटि
10
3
दशम (चतुर्थी सुषमदुःषमाकाल
कोटाकोटि
कोटाकोटि
सुषमादुषमाकाल
तृतीय
... 42000
नवम (तृतीय) दुःषमसुषमाकाल
42000
दुःषमासुषमाकाल
चतुर्थ
6
काल -
21000
21000
(Rupane
उत्सर्पिणी काल
दुषमाकाल
00012
8
0008
(utan)
दस कोटाकोटि सागरोपम (४+३+२+१ सागरोपम) से छह आरारूप एक अवसर्पिणी काल अर्थात् आधा कालचक्र पूर्ण होता है। अवसर्पिणी से विपरीत क्रम में छह आरों वाला उत्सर्पिणी काल होता है। इस तरह बारह आरे से अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी का एक कालचक्र पूर्ण होता है। इसके बाद पुनः पूर्व के समान अवसर्पिणी काल का प्रथम आरा प्रारम्भ होता है।" 3. अनन्तकालःपुद्गलपरावर्तन
___ परिवर्तनशील यह लोक अनन्त पुद्गल वर्गणाओं ६° से भरा हुआ है। पुद्गलों में निरन्तर परिवर्तन होता है। पुद्गल का एक पर्याय से दूसरी पर्याय में बदलना परिवर्तन है। यह परिवर्तन ही परावर्तन कहलाता है। अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में एक पुद्गलपरावर्तन होता है। पुद्गलपरावर्तन से काल की गणना की जाती है। अतः लोकप्रकाशकार ने काललोक के अन्तर्गत