SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 371
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 342 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी कालचक्र 12 द्वादश (षष्ठ) सुषमसुषमाकाल प्रथम सुषमसुषमाकाल द्वितीय सुषमाकाल एकादश (पंचम) सुषमाकाल कोटाकोटि कोटाकोटि 3 . कोटाकोटि अवसपिणी काल कोटाकोटि 10 3 दशम (चतुर्थी सुषमदुःषमाकाल कोटाकोटि कोटाकोटि सुषमादुषमाकाल तृतीय ... 42000 नवम (तृतीय) दुःषमसुषमाकाल 42000 दुःषमासुषमाकाल चतुर्थ 6 काल - 21000 21000 (Rupane उत्सर्पिणी काल दुषमाकाल 00012 8 0008 (utan) दस कोटाकोटि सागरोपम (४+३+२+१ सागरोपम) से छह आरारूप एक अवसर्पिणी काल अर्थात् आधा कालचक्र पूर्ण होता है। अवसर्पिणी से विपरीत क्रम में छह आरों वाला उत्सर्पिणी काल होता है। इस तरह बारह आरे से अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी का एक कालचक्र पूर्ण होता है। इसके बाद पुनः पूर्व के समान अवसर्पिणी काल का प्रथम आरा प्रारम्भ होता है।" 3. अनन्तकालःपुद्गलपरावर्तन ___ परिवर्तनशील यह लोक अनन्त पुद्गल वर्गणाओं ६° से भरा हुआ है। पुद्गलों में निरन्तर परिवर्तन होता है। पुद्गल का एक पर्याय से दूसरी पर्याय में बदलना परिवर्तन है। यह परिवर्तन ही परावर्तन कहलाता है। अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में एक पुद्गलपरावर्तन होता है। पुद्गलपरावर्तन से काल की गणना की जाती है। अतः लोकप्रकाशकार ने काललोक के अन्तर्गत
SR No.022332
Book TitleLokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemlata Jain
PublisherL D Institute of Indology
Publication Year2014
Total Pages422
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy