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जीव-विवेचन (2) ऊपर अस्थिबन्ध। इस प्रकार जिस संहनन में वज्र, पट्ट एवं अस्थिबन्ध हो उसे वज्रऋषभनाराच संहनन कहते हैं। भट्ट अकलंक (विक्रम की 7-8वीं शती) का मत- 'तत्र वजाकारोभयास्थिसंधि प्रत्येक मध्ये वलयबन्धनं सनाराचं सुसंहतं वज्रर्षभनाराचसंहननम्' अर्थात् वज्र आकार की दो हड्डियों के सन्धि-स्थल के बीच वलय के बन्धन से युक्त सुसंहत संहनन वज्रऋषभनाराच कहलाता है।'४ वीरसेनाचार्य (शक संवत् 745) का मत- "ऋषभो-वेष्टनम् वज्रवदभेद्यत्वाद्वजऋषभः । वज्रवन्नाराचः वज्रनाराचः तौ द्वावपि यस्मिन् वज्रशरीरसंहनने तद् वज्रऋषभ वजनाराचशरीरसंहननम् जस्स कम्मस्स उदएण वजहड्डाइं वज्जवेढेण वेट्ठियाइं वज्जणाराएण खीलियाई च होति तं वज्जरिसहवइरणारायणसरीरसंघडणमिदि उत्तं होदि।"
__ अर्थात् वेष्टन को ऋषभ कहते हैं। वज्र के समान अभेद्य 'वज्रऋषभ' है। वज्र के समान जो नाराच है वह वज्रऋषभवज्रनाराचशरीर संहनन है। जिस कर्मोदय से वज्रमय हड्डियाँ वज्रमय वेष्टन से वेष्टित और वज्रमय नाराच से कीलित होती हैं वह वज्रऋषभवज्रनाराच शरीर संहनन है। देवेन्द्रसूरि (13वीं शताब्दी) का मत- "रिसहो पट्टो य कीलिया वज्जं । उभओ मक्कडबंधो नारायं ।। १६
वज्र अर्थात् कील, ऋषभ अर्थात् वेष्टन पट्ट और नाराच अर्थात् मर्कट बन्ध। इन सबके संयोग से वज्रऋषभनाराच संहनन होता है।
उपर्युक्त मतों का अवलोकन करने से यह ज्ञात होता है कि आचार्य सिद्धसेन गणि, भट्ट अकलंक और देवेन्द्रसूरि तीनों का वज्र, ऋषभ एवं नाराच शब्दों से अभिप्राय क्रमशः कील, वेष्टन और मर्कटबंध है। इन्हीं का अनुकरण विनयविजय ने भी किया है
कीलिका वज्रमृषभः पट्टोऽस्थिद्वयवेष्टकः ।
अस्थ्नोर्मर्कटबन्धो यः स नाराच इति स्मृतः ।।१० __ अतः जिस शरीर में सन्धि स्थान पर मर्कट बन्ध से बंधी हुई दो वज्रमयी हड्डियों के ऊपर एक और हड्डी का वेष्टन हो और इन तीनों को भेदने वाली कील रूपी हड्डी भी वज्रस्वरूपा हो तो वह वज्रऋषभनाराचशरीर संहनन होता है। ऋषभनाराच संहनन- - - -
इस संहनन को अर्द्धऋषभनारा- पतं वज्रनाराच भी कहा जाता है। लोकप्रकाशकार ने ऋषभनाराच को परिभाषित करते हुए कहा है कि वज्रऋषभनाराच शरीर संहनन में यदि कील के आकार वाली हड्डी न हो तो शरीर का यह अंगसंयोजन ऋषभनाराच कहलाता है। इस संहनन के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों के मत इस प्रकार हैं