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लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन पत्र-पुष्प-फल की समान काल में उत्पत्ति न होने से ६. विविध ऋतु भेद आदि की विवक्षा से ७. वर्तमान-भूत-भविष्य के पृथक् अनुभव से ८. क्षिप्र, चिर, युगपद् आदि शब्दों के प्रयोग से तथा ६. आगम प्रमाण से काल की स्वतंत्र द्रव्य के रूप में सिद्धि की है। काल की स्वतन्त्र द्रव्यता की सिद्धि और असिद्धि के प्रतिपादन में प्रो. धर्मचन्द जैन के सागरिका (जुलाई-सितम्बर २००५) अंक में 'जैनदर्शने कालस्य द्रव्यत्वमनस्तिकायत्वंच' शीर्षक से प्रकाशित लेख को आधार बनाया है। काल की स्वतंत्र सत्ता दो तरह से ज्ञात होती है- १. नामोल्लेख से और २. युक्तियों से। काल का पृथक द्रव्य के रूप में नामोल्लेख . .
व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र, अनुयोगद्वारसूत्र आदि आगम ग्रन्थों और पंचास्तिकाय, नियमसार एवं जीवसमास आदि ग्रन्थों में काल की सत्ता स्वीकार करने का उल्लेख मिलता हैव्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र- "गोयमा! छव्विहा दव्वा पण्णत्ता, तं जहा- धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, आगासत्थिकाए, पुग्गलत्थिकाए, जीवत्थिकाए, अद्धासमए य ।"
गौतम छह द्रव्य हैं- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय और अद्धासमय। उत्तराध्ययनसूत्र- "धम्मो अहम्मो आगासं कालो पुग्गल जंतवो । एस लोगो त्ति पण्णत्तो जिणेहिं वरदंसीहि ।।२४
धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल एवं जीव को जिनेश्वरों ने लोक कहा है। अनुयोगद्वारसूत्र- "दव्वणामे छब्बिहे पण्णत्ते तं जहा- धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, आगासत्थिकाए, जीवत्थिकाए, पोग्गलत्थिकाए, अद्धासमए य।
द्रव्यनाम छह हैं- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और अद्धासमय। पंचास्तिकाय- "समावसभावाणं जीवाणं तह य पोग्गलाणं च। परियट्टणसंभूदो कालो णियमेण पण्णत्तो।
__लोक की सिद्धि षड्द्रव्यों के बिना नहीं होती है, क्योंकि जीव और पुद्गल के नवजीर्ण परिणाम की मर्यादा व्यवहारकाल के बिना नहीं होती है। अतः कालद्रव्य का स्वरूप सूक्ष्मदृष्टि से जानना चाहिए। नियमसार- "प्रतीतिगोचराः सर्वे जीवपुद्गलराशयः। धर्माधर्मनभःकालाः सिद्धाः सिद्धान्तपद्धते। २०
जीवराशि, पुद्गलराशि, धर्म, अधर्म, आकाश और काल सभी प्रतीतिगोचर हैं अर्थात् छहों