Book Title: Lokprakash Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Hemlata Jain
Publisher: L D Institute of Indology

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Page 347
________________ 318 लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन कालस्वतन्त्र द्रव्य नहीं कालद्रव्य की पृथक् द्रव्यता अस्वीकृत करने वाले विद्वान् धर्मास्तिकायादि द्रव्यों की पर्याय को ही काल स्वीकार करते हैं। उसका पृथक् अस्तित्व सिद्ध नहीं करते हैं। व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में वर्णित भगवान् महावीर और गौतम गणधर के मध्य हुआ संवाद इस मत के प्रतिपादन का आधार है। "किमिदं भंते कालेति पवुच्चति?गोयम! जीवा चेव अजीवा चेवेति।" स्थानांग सूत्र में कथित “समयाति वा आविलयाति वा जीवाति वा अजीवाति वा पवुच्चति।" यह कथन भी इसी मत का प्रतिपादन करता है। जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण के विशेषावश्यक भाष्य में भी यह काल जीव और अजीव द्रव्यों की पर्याय रूप कहा गया है- “सो वत्तणाइरूवो कालो दव्वस्स चेव पज्जाओ।" हरिभद्रसूरिरचित धर्मसंग्रहणि के टीकाकार मलयगिरि भी काल की पृथक् द्रव्यता स्वीकार नहीं करते हैं। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के विशेषावश्यक भाष्य में भी यह काल जीव-अजीव की पर्याय रूप में उल्लिखित है। यहाँ जिनभद्रगणि कहते हैं कि वर्तनादि स्वरूप वाला काल द्रव्य की पर्याय ही होता है। उसका स्वतंत्र द्रव्यत्व नहीं है ___ 'सो वत्तणाइरूवो कालो दव्वस्स चेव पज्जाओ। हरिभद्रसूरि विरचित धर्मसंग्रहणि ग्रन्थ के टीकाकार आचार्य मलयगिरि भी काल को जीव-अजीव द्रव्यों की पर्याय मानते हैं, उसका स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार नहीं करते हैं। वे कहते हैं"न हि जीवादिवस्तुव्यतिरिक्तः कश्चित् कालो नाम पदार्थविशेषः परिकल्पितः एकः प्रत्यक्षेणोपलभ्यते। पूर्व-अपर व्यवहार के आधार पर अनुमान से काल की द्रव्यता स्वीकृत करने वाले वैशेषिक मत को पूर्वपक्ष में रखकर टीकाकार मलयगिरि कहते हैं कि यदि काल एक ही है तब उसमें पूर्वापर कैसे सम्भव हो सकता है। यदि सहचारी सम्पर्क के कारण काल की पूर्वत्व-अपरत्व की कल्पना की जाती है तो भी यह सम्यक् नहीं है क्योंकि इससे तो इतरेतराश्रय प्रसंग दोष उपस्थित हो जाता है। अतः वर्तना स्वरूप को ही काल जानना चाहिए। क्योंकि वर्तना में ही अक्लेश पूर्वक पूर्वत्वादि व्यवहार सम्भव है। यथा अतीत वर्तना 'पूर्व', भविष्य में होने वाली वर्तना ‘अपर' और तत्काल चलने वाली वर्तना 'वर्तमान' कहलाती है। इस प्रकार वर्तना लक्षण रूप काल प्रतिद्रव्य की भिन्नता से अनन्त है। इसलिए वर्तना ही काल का धर्म है। यह मलयगिरि प्रतिपादित करते हैं। काल की पृथक् द्रव्यता नहीं है, इसकी पुष्टि लोकप्रकाशकार उपाध्याय विनयविजय निरूपित करते हैं

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