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काललोक
अत्र द्रव्याभेदवर्ति - वर्तनादिविवक्षया । कालोऽपि वर्तनाद्यात्मा जीवाजीवतयोदितः । वर्तनाद्याश्च पर्याया एवेति प्राग विनिश्चितं । तद्वर्तनादिसम्पन्नः कालो द्रव्यं भवेत्कथम् । पर्यायाणां हि द्रव्यत्वेऽनवस्थापि प्रसज्यते।
पर्यायरूपस्तत्कालः पृथग् द्रव्यं न सम्भवेत् ।।" वर्तनादि पर्याय रूप काल जीव-अजीव स्वरूप द्रव्य से अभिन्न है। वर्तनादि सम्पन्न काल पृथक् द्रव्य नहीं हो सकता है, क्योंकि यदि द्रव्य की पर्याय को ही पृथक् द्रव्य स्वीकार करेंगे तो अनवस्था दोष उत्पन्न होगा। अतः काल द्रव्य पर्याय रूप ही है। यह पृथक् द्रव्य नहीं हो सकता है।
उपाध्याय विनयविजय एक और तर्क देते हैं कि जिस प्रकार व्योम सर्वत्र विद्यमान होने से अस्तिकाय माना जाता है उसी प्रकार वर्तनास्वरूप के भी सर्वत्र होने से काल भी अस्तिकाय की कोटि में परिगणित होना चाहिए, परन्तु आगम में अस्तिकाय पाँच ही कहे गए हैं। अतः काल अस्तिकाय नहीं है। इस प्रकार कुछ जैनाचार्यों ने काल की पृथक् द्रव्यता को अस्वीकृत कर प्रतिपक्ष का खण्डन किया है। काल की स्वतंत्र द्रव्यता
आगम ग्रन्थों में द्रव्य छह और अस्तिकाय पाँच कहे गए हैं। कहीं भी 'द्रव्य पाँच' नहीं कहे गए हैं। तत्त्वार्थसूत्र में द्रव्य का लक्षण किया है
'गुणपर्यायवद् द्रव्यम्" अर्थात् द्रव्य गुणयुक्त और पर्याययुक्त होता है। काल भी उसी प्रकार गुणयुक्त और पर्याययुक्त होता है। आचार्य विद्यानन्द काल में द्रव्यता के लक्षण को तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में सिद्ध करते हुए कहते हैं कि काल में संयोग, विभाग, संख्या, परिमाण आदि सामान्य गुण और सूक्ष्मत्व, अमूर्तत्व, गुरुत्व, लघुत्व, एकप्रदेशत्वादि विशेष गुण होते हैं। पदार्थों में क्रमपूर्वक वर्तनादि पर्याय काल के प्रसिद्ध हैं।
निःशेषद्रव्यसंयोगविभागादिगुणाश्रयः । कालः सामान्यतः सिद्धः सूक्ष्मत्वाद्याश्रयोऽभिधा ।। क्रमवृत्तिपदार्थानां - वृत्तिकारणतादयः ।
पर्यायाः सन्ति कालस्य गुणपर्यायवानतः ।।" - इस प्रकार 'गुणपर्यायवद् द्रव्यम्' यह लक्षण काल में भी सिद्ध होता है। विनयविजय नौ युक्तियों से काल की स्वतंत्रसत्ता सिद्ध करते हैं- १. सूर्य आदि की गति के आधार पर २ 'काल' शब्द के शुद्ध प्रयोग से ३. समयादि विशेष के प्रयोग से ४. काल सामान्य के होने से ५.