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लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन उन्नीसवां द्वार : संहनन-विचार ___अस्थियों का विशेष अंग संयोजन 'संहनन' कहलाता है। जिस कर्मोदय से विशेष संयोजन होता है वह ‘संहनननामकर्म' है। लोकप्रकाशकार के अनुसार अस्थियों का सम्बन्ध विशेष संहनन है। पूज्यपादाचार्य अस्थियों के बन्धन-विशेष को संहनन स्वीकार करते हैं, धवलाटीकाकार हड्डियों के संचय को संहनन मानते हैं और तत्त्वार्थ सूत्र भाष्य के टीकाकार सिद्धसेनगणि के अनुसार संहनन नाम शरीर की हड्डी आदि की दृढ़ता का है। इन सब कथनों का अभिप्राय समान ही है, जिससे स्पष्ट होता है कि अस्थियों के बन्धन, संयोजन का, दृढता का विचार संहनन के अन्तर्गत होता है। अस्थियों के बन्धन की दृढता भिन्न-भिन्न होती हैं। कोई अधिक दृढ तो कुछ कम दृढता लिए होती है। इस विशिष्टता से संहनन के छः प्रकार हैं।
वज्जरिसहनारायं पढमं बीयं च रिसहनारायं।
नारायमद्धनारायं कीलिया तह य छेवढें ।।*० संहनन के छः प्रकार हैं- १. वज्रऋषभनाराच २. ऋषभनाराच ३. नाराच ४. अर्धनाराच ५. कीलिका ६. सेवार्त। कर्मग्रन्थकार ने संहनन के लक्षण सहित एक ही गाथा में भेदों को गिनाया है
संघयणमट्ठिनिचओ, तं छद्धा वज्जरिसहनारायं ।
तह य रिसहनारायं, नारायं अद्धनारायं ।।* वजऋषभनाराच संहनन
बद्धे मर्कटबन्धेन सन्धौ सन्धे यदस्थिनी। अस्थना च पट्टाकृतिना भवतः परिवेष्टिते।। तदस्थित्रयमाविद्ध्य स्थिते नास्थ्ना दृढीकृतम्।
कीलिका कृतिना वजर्षभ-नाराचकं स्मृतम् ।।१२ अर्थात् सन्धिस्थान पर मर्कट बन्ध से बंधी हुई हड्डी पर एक पट्टी के आकार की लिपटी हुई तीसरी हड्डी हो और तीनों हड्डी एक कील के आकार वाली हड्डी से बांधकर दृढ़ बनी हो ऐसे शरीर का अंग-संयोजन वज्रर्षभनाराच संहनन कहलाता है।
___ इस संहनन के सम्बन्ध में आचार्यों के विभिन्न मत प्राप्त होते हैंसिद्धसेनगणी (विक्रम की 7-8वीं शती) का मत- 'ऋषभः पट्ट वजं कीलिका, मर्कटबन्धः य उभयपार्श्वयोरस्थिबन्धः स किल नाराचः। वज्रर्षभनाराचा यत्र संहनने तद् वज्रर्षभनाराचसंहननम्, अस्थनां बन्धविशेष इति।३
ऋषभ का अर्थ है पट्ट, वज्र का अर्थ है कीलिका एवं नाराच का तात्पर्य है दो हड्डियों के