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जीव-विवेचन (2) विनयविजय इस कथन के प्रमाण में आगम-ग्रन्थ का उल्लेख करते हैं। भगवती सूत्र शतक ३४, प्रथम उद्देशक की वृत्ति के अनुसार लोक के चरमान्त में सभी सूक्ष्म एकेन्द्रिय एवं बादर वायुकाय जीवों का ही अस्तित्व है, यथा
____ "इह लोकचरमान्ते बादरपृथिवीकायिकाप्कायिक तेजोवनस्पतयो न सन्ति। सूक्ष्मास्तु पंचापि सन्ति बादरवायुकायिकाश्चेति पर्याप्तापर्याप्तक भेदेन द्वादश स्थानान्यनुसर्त्तव्यानीति।"७७२ चार दिशाओं से दिगाहार- यदि वही एकेन्द्रिय जीव नीचे अधोलोक में ही पश्चिम दिशा में स्थित हो तो उसके पूर्व दिशा के अलोक के व्याघात का निवारण हो जाएगा और केवल अधोदिशा व दक्षिण दो दिशा के अलोक का व्याघात रहेगा। अतः अब उसे चार दिशाओं- पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं ऊर्ध्व से निर्व्याघात पद्गलाहार मिलता रहेगा। पाँच दिशाओं से दिगाहार- जब वही एकेन्द्रिय जीव अधोलोक में दूसरे, तीसरे आदि प्रस्तर में ऊर्ध्व दिशा या पश्चिम दिशा में स्थित हो जाए तो उसे मात्र दक्षिण दिशा के अलोक का व्याघात होगा
और शेष पाँच दिशाओं- पूर्व, पश्चिम, उत्तर, अधो एवं ऊर्ध्व दिशा से निर्व्याघात पुद्गलाहार प्राप्त होगा। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से दिगाहार स्वरूप
दिगाहार पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा अनन्त प्रदेशी होते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा से ये आहार-पुद्गल असंख्यात आकाश प्रदेशों का अवगाहन करते हैं। काल की अपेक्षा से इन पुद्गलों की स्थिति जघन्य एक समय, मध्यम दो समय से असंख्यात समय पर्यन्त और उत्कृष्ट असंख्यात समय होती है। भाव से इन आहार पुद्गलों के पाँच वर्ण, पाँच रस, द्विविध गन्ध और आठ प्रकार के स्पर्श होते हैं तथा इनके एक गुणा, दो गुणा इस तरह करते अनन्त गुणा प्रकार होते हैं।
जीव कितनी-कितनी दिशाओं से पुद्गलाहार ग्रहण करते हैं इसका उल्लेख इस प्रकार हैंसूक्ष्म एकेन्द्रिय- सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों का निर्व्याघात छः दिशा से और व्याघात की अपेक्षा से तीन या चार या पाँच दिशाओं से आहार होता है। बादर एकेन्द्रिय- बादर वायुकाय का तीन या चार या पाँच दिशा से आहार होता है एवं शेष पृथ्वीकायादि जीवों को छः दिशा से आहार होता है।
विकलेन्द्रिय जीव, सम्मूर्छिम व गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यंच", सम्मूर्छिम व गर्भज मनुष्य, देव'" और नारकी" इन सभी जीवों को छः दिशा में आहार होता है।