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जीव-विवेचन (3) (सम्यक्त्व), अशुद्ध (मिथ्यात्व) और अर्द्धविशुद्ध (सम्यग्मिथ्यात्व) में से अर्द्धविशुद्ध पुंज का उदय होता है तब जिनप्रणीत तत्त्व पर श्रद्धा या अश्रद्धा नहीं होती है। इस प्रकार की मिश्रश्रद्धा वाले जीव को सम्यग्मिथ्यादृष्टि कहते हैं और उसका स्वरूपविशेष मिश्रगुणस्थान कहलाता है। कहा भी है
पूर्वोक्तपुजत्रितये स यद्यर्थ विशुद्ध कः, समुदेति तदा तस्योदयेन स्याच्छरीरिणः । श्रद्धा जिनोक्ततत्त्वेऽर्धविशुद्धासौ तदोच्यते,
सम्यग्मिथ्यादृष्टिरिति गुणस्थानं च तस्य तत् ।।* नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के अनुसार पहले ग्रहण किए हुए अतत्त्वश्रद्धान को त्यागे बिना उसके साथ ही तत्त्वश्रद्धान होता है क्योंकि तत्त्वश्रद्धान का भी सद्भाव है। अतः यह सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है। दृष्टान्त पूर्वक सरल शब्दों में इसे समझाते हुए पंचसंग्रहकार और नेमिचन्द्र कहते हैं कि जिस प्रकार दही और गुड़ को मिला देने पर उनका अलग-अलग अनुभव नहीं किया जा सकता है, परन्तु उनका मिश्रभाव ही प्राप्त होता है। उसी प्रकार एक ही काल में सम्यक्त्व और मिथ्यात्व रूप मिला हुआ परिणाम मिश्र गुणस्थान कहलाता है
दहिगुडमिव वा मिस्सं पुहभावं णेव कारिदुं सक्कं ।
एवं मिस्सयभावो सम्मामिच्छो त्ति णादव्यो।।६० पारिभाषिक शब्दावली में सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान सम्यक् प्रकृति कर्म के देशघाति स्पर्धकों का उदय-क्षय होने से, सत्ता में स्थित उन्हीं देशघाती स्पर्धकों उदयाभाव लक्षण रूप उपशम होने से
और सम्यग्मिथ्यात्व कर्म के सर्वघाती स्पर्धकों का उदय होने से उत्पन्न होता है। कर्मों के क्षय एवं उपशम होने से यह गुणस्थान क्षायोपशमिक होता है।
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से तृतीय गुणस्थान जीव में निहित पाशविक एवं वासनात्मक जीवन के प्रतिनिधि इदम् (अबोधात्मा) और आदर्श एवं मूल्यात्मक जीवन के प्रतिनिधि नैतिक मन (आदर्शात्मा) के मध्य संघर्ष की वह अवस्था है जिसमें चेतन मन (बोधात्मा) अपना निर्णय देने में असमर्थता का अनुभव करता है और निर्णय को स्वल्प समय के लिए स्थगित रखता है। यह संघर्ष सत्य-असत्य, शुभ-अशुभ अथवा पाशविक वृत्तियों और आध्यात्मिक वृत्तियों के मध्य चलता रहता है। इस संघर्ष के दो परिणाम उभर कर आते हैं-प्रथम परिणाम- यदि संघर्ष में आध्यात्मिक एवं नैतिक पक्ष विजयी होता है तब व्यक्ति आध्यात्मिक विकास की दिशा में आगे बढ़कर यथार्थ दृष्टिकोण को प्राप्त कर चतुर्थ अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में चला जाता है। द्वितीय परिणाम- यदि पाशविक वृत्तियां विजयी होती हैं तो व्यक्ति वासनाओं के प्रबलतम आवेगों के फलस्वरूप यथार्थ दृष्टिकोण से वंचित होकर पुनः पतित होकर प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में चला जाता है।२६२