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लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन भावेन्द्रिय कहते हैं। द्रव्येन्द्रिय के दो प्रकार हैं- निवृत्ति और उपकरण। पुद्गलों से बाह्य एवं आभ्यन्तर इन्द्रिय रचना को निर्वृत्ति द्रव्येन्द्रिय तथा उपयोग में सहायक बनने पर उसको उपकरण द्रव्येन्द्रिय कहा जाता है। भावेन्द्रिय भी दो प्रकार की हैं- लब्धि और उपयोग। मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम से जीव में अर्थ (पदार्थ) को जानने की शक्ति प्रकट होती है उसे लब्धि भावेन्द्रिय कहते हैं तथा उस पदार्थ को जानने के व्यापार को उपयोग भावेन्द्रिय कहा जाता है। श्रोत्र, चक्षु आदि पाँच इन्द्रियों का निर्माण नामकर्म से सम्बद्ध है, जबकि उसमें जानने का कार्य मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम से होता है। इन्द्रियों की ग्रहण शक्ति के सम्बन्ध में यह तथ्य आकर्षक है कि श्रोत्रेन्द्रिय अधिकतम १२ योजन दूर से आए शब्द को सुन सकती है, चक्षुइन्द्रिय अधिकतमक १ लाख योजन दूर स्थित पदार्थ को देख सकती है
जबकि शेष इन्द्रियाँ नौ योजन दूर से आए विषयों को ग्रहण कर सकती हैं। ३. वेद शब्द का प्रयोग जैन दर्शन में स्त्री, पुरुष एवं नपुंसक को उत्पन्न होने वाली मैथुन
अभिलाषा के अर्थ में हुआ है। इसे भी द्रव्य ओर भाव दो प्रकार का निरूपित किया गया है। नामकर्म के उदय से प्राप्त योनि एवं बाह्य लिंग द्रव्यवेद है ओर नोकषाय चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से मैथुन की अभिलाषा भाववेद है। यह एक विचित्र तथ्य अभिव्यक्त हुआ है कि कोई व्यक्ति द्रव्य से पुरुषवेद वाला होकर भाववेद से पुरुष, स्त्री एवं नपुंसक तीनों प्रकार का हो सकता है। इसी प्रकार द्रव्य से स्त्रीवेद भी भाव से तीनों वेद वाला सम्भव है। जीवों के काम भाव को अथवा वासना को भाववेद कह सकते हैं। एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, सम्मूर्छिम तियेच पंचेन्द्रिय, सम्मूर्छिम मनुष्य एवं समस्त नारक जीवों में नपुंसक वेद होता है। देवों में स्त्रीवेद और पुरुषवेद दो ही वेद होते हैं। गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रिय ओर गर्भज मनुष्य में तीनों वेद होते हैं। गर्भज मनुष्य अवेदी अर्थात् कामवासना रहित भी हो सकता
४. जीवों की आभ्यन्तर दृष्टि भिन्न-भिन्न होती है। कोई जीव सम्यग्दृष्टि होता है तो कोई मिथ्यादृष्टि और कोई मिश्रदृष्टि। जो वस्तु जैसी है उसे ठीक उसी रूप में समझना सम्यग्दृष्टि का स्वरूप है, मिथ्यादृष्टि ठीक इसके विपरीत है तथा मिश्रदृष्टि में दोनों का मिश्रित रूप रहता है। मनुष्य, देव और नारकी तीनों दृष्टियों में से किसी भी एक दृष्टि से युक्त हो सकते हैं, जबकि तिर्यच पंचेन्द्रिय में कोई जीव सम्यग्दृष्टि भी हो सकता है, किन्तु
शेष तियेच जीव प्रायः मिथ्यादृष्टि ही होते हैं। ५. जैन दर्शन में निरूपित ज्ञान के स्वरूप एवं भेदों का प्रतिपादन विनयविजय ने लोकप्रकाश में