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क्षेत्रलोक
हिरण्य का अर्थ विनयविजय सुवर्ण और रजत दोनों स्वीकार करते हैं। रुक्मी और शिखरी पर्वत अनुक्रम से रजतमय और सुवर्णमय हैं। इन दोनों पर्वतों के मध्य में होने से इसका नाम हैरण्यवत रखा गया है।
प्रयच्छति हिरण्यं वा युग्मिनामासनादिषु।
यत् सन्ति तत्र बहवः शिलापट्टा हिरण्यजाः ।। अथवा इस क्षेत्र के युगलिकों को हिरण्य शिलापट्ट देने से इसका नाम हैरण्यवंत है।
प्रभूतं तन्नित्ययोगि वास्यास्तीति हिरण्यवत्।
तदेव हैरण्यवतमित्याहुः मुनिसत्तमाः ।।०० अथवा यहाँ अधिक मात्रा में सुवर्णमय वस्तुओं के होने से इसका नाम हैरण्यवत है।
___ हैरण्यवत नामा वा देवः पल्योपमस्थितिः ।
ऐश्वर्य कलयत्यत्र तद्योगात् प्रथितं तथा।।" अथवा इस क्षेत्र का अधिष्ठायक देव हैरण्यवत होने से इसका यह नाम है। (6) ऐरवत क्षेत्र- शिखरी पर्वत के उत्तर दिशा में और उत्तर लवणसमुद्र से दक्षिण दिशा में ऐरवत नाम का मनोहर क्षेत्र है। एक पल्योपम आयुष्य वाले ऐरवत देव से अधिष्ठित होने से इस क्षेत्र का नाम ऐरवत है। भरत क्षेत्र के समान ही प्रतिबिम्बित होने वाले इस क्षेत्र के भी सन्मुख समुद्र है
और काल के छह आरों का चक्र चलता है। इसके भी मध्य विभाग में वैताढ्य पर्वत है जो इसके दो विभाग दक्षिण ऐरवत और उत्तर ऐरवत करते हैं। भरतक्षेत्र के तुल्य ही यहाँ भी दस आश्चर्य होते हैं। वे दस आश्चर्य इस प्रकार है
दस अच्छे रगा पण्णत्ता, तं जहाउवसग्ग गब्भहरणं, इत्थीतित्थं अभाविया परिसा। कण्हस्स अवरकंका, उत्तरणं चंदसूराणं ।। हरिवंसकुलुप्पत्ती, चमरुप्पातो य अट्टठसयसिद्धा।
अस्संजतेसु पूआ दसवि अणंतेण कालेण।।" दस आश्चर्य कहे गए हैं, जैसे१. उपसर्ग- तीर्थंकरों के ऊपर उपसर्ग होना। २. गर्भहरण- भगवान् महावीर का गर्भापहरण होना। ३. स्त्री का तीर्थकर होना। ४. अभावित परिषत्- तीर्थंकर भगवान् महावीर का प्रथम धर्मोपदेश विफल हुआ अर्थात् उसे
सुनकर किसी ने चारित्र अंगीकार नहीं किया।