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क्षेत्रलोक
309 योजन ऊपर अनुत्तर नाम के पाँच प्रतर हैं। इन पाँच प्रतरों के बाद कोई प्रतर ऊपर न होने से इनका नाम अनुत्तर है।" अनुत्तर देवलोक, पुरुषाकृति वाले लोक के कंठ विभाग में और नौ ग्रैवेयक कंठ के मणि में शोभित होते हैं। अनुत्तर देवलोक मुख समान है जिसकी चारों दिशाओं पूर्व दिशा में विजय नाम का, दक्षिण दिशा में वैजयन्त नाम का, पश्चिम दिशा में जयन्त नाम का, उत्तर दिशा में अपराजित नाम का और मध्य में सर्व अर्थ को सिद्ध करने वाला सर्वार्थसिद्ध नामक एक-एक विमान है। ग्रैवेयक और अनुत्तर विमान के सब देव अहमिन्द्र होते हैं और सभी एक प्रकार के ही और कल्पातीत होते हैं। यहाँ स्वामि-सेवक भाव का व्यवहार नहीं होता है इसलिए ये देव कल्पातीत कहलाते हैं।" - -
बारह वैमानिक देवों में तीन किल्विषिक देव होते हैं। एक देव १३ सागरोपम आयुष्य वाला, दूसरा तीन सागरोपम आयुष्य वाला और तीसरा तीन पल्योपम आयुष्य वाला होता है। पहला देव लांतक देवलोक के नीचे निवास करता है, दूसरा देव सनत्कुमार देवलोक के नीचे और तीसरा देव सौधर्म-ईशान देवलोक के नीचे निवास करता है। ये किल्विषिक देव निंद्यकर्म के अधिकारी होने से चंडाल समान हैं अन्य देव इनको धिक्कारते हैं।" .. सर्वार्थसिद्ध विमान के शिखर से १२ योजन ऊपर अर्जुन सुवर्णमय निर्मल सिद्धशिला स्थित है। यह सिद्धशिला ४५ लाख योजन लम्बी-चौड़ी है और इसकी परिधि १४२३०२४६ योजन प्रमाण है।" सिद्धशिला के बारह अन्य नाम भी कहे गये हैं
ईषत्तथेषत्प्राग्भारा तन्वीच तनुतन्विका। सिद्धिः सिद्धालयो मुक्तिर्मुक्तालयोऽपि कथ्यते।। लोकाग्रं तत्त्स्तूपिका च लोकाग्रप्रतिवाहिनी।
तथा सर्वप्राणभूतजीवसत्त्वसुखावहा ।।५२ __ अर्थात् १. ईषत् २. ईषत् प्राग्भारा ३. तन्वी ४. तनुतन्विका ५. सिद्धि ६. सिद्धालय ७. मुक्ति ८. मुक्तालय ६. लोकाग्र १०. लोक स्तूपिका ११. लोकाग्र प्रतिवाहिनी और १२. सर्वप्राण भूत जीव सत्त्वसुखावहा। इस प्रकार सिद्धशिला के बारह नाम हैं।
सिद्धशिला की आकृति उल्टे छत्र के समान है, घृतपूर्ण कटोरे के समान है। सिद्धशिला में एक योजन ऊपर जाने पर लोकान्त आता है।" ...सौधर्म एवं ईशान देवलोक में निवास भूमि के आकार वाले तेरह प्रतर होते हैं।" सनत्कुमार और माहेन्द्र देवलोक भी पहले-दूसरे के समान समश्रेणि में स्थित हैं, अतः उसमें भी बारह प्रतर होते हैं। पाँचवें देवलोक में छह, छठे में पाँच, सातवें में चार और आठवें में चार प्रतर