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लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन किल्विषक देवों का निवास होता है। १६.दिशाओं के निर्धारण में जैन दार्शनिकों की विशिष्ट दृष्टि रही है। क्षेत्र दिशा का निरूपण
करते समय उन्होंने लोक के मध्यभाग (मध्यलोक) के मध्य में स्थित सुमेरु पर्वत के मध्य भाग को केन्द्र माना है। वहाँ पर चार रुचक प्रदेशों की कल्पना करते हुए विभिन्न दिशाओं
की परिकल्पना की गई है। १७.नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, भाव, ताप, प्रज्ञापक आदि के आधार पर दिशाओं का प्रतिपादन
जैन दर्शन में ही दिखाई देता है। अन्यत्र इतना सूक्ष्म चिन्तन नहीं हुआ है। न्याय वैशेषिक दर्शन में दिशा का विवेचन हुआ है किन्तु जैन दर्शन में प्राप्त विवेचन विशिष्ट दृष्टि लिए हुए
इस प्रकार जैन आगम-साहित्य में लोक के क्षेत्र का यह विशिष्ट स्वरूप प्रतिपादित किया जाता है।
संदर्भ
१. जम्बूद्वीप परिशीलन-अनुपम जैन, प्र. दि.जैन त्रिलोक शोध संस्थान, मेरठ २. लोकप्रकाश, 12.3 ३. लोकप्रकाश, 12.4 ४. लोकप्रकाश, 12.5 ५. लोकप्रकाश, 12.5 ६. लोकप्रकाश, 12.6 ७. लोकप्रकाश, 12.45-47 ८. तिलोयपण्णति, खण्ड 1, 1.137-138 ६. लोकप्रकाश, 12.8 १०. लोकप्रकाश, 12.9-10 ११. लोकप्रकाश, 12.11-14 १२. तिलोयपण्णत्ति, खण्ड 1, 1.149, श्री यतिवृषभ रचिता टीकाकार आर्यिका विशुद्धमती जी, प्रकाशक
प्रकाशन विभाग श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा, प्रथम संस्करण, 1984 १३. तिलोयपण्णत्ति, 1.154-157 १४. तिलोयपण्णत्ति, 1.158-162 १५. तिलोयपण्णत्ति, 1.149 १६. नरक की सात भूमियों के अतिरिक्त अष्टम भूमि भी मानी गई है। नरक के नीचे निगोदों की ___निवासभूत कलकल नाम की पृथ्वी अष्टम पृथ्वी है और ऊर्ध्वलोक के अन्तिम भाग में मुक्त जीवों की
आवासभूत ईषत्प्राग्भार नाम की अष्टम पृथ्वी हैं।-जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग 3. पृष्ठ 234 १७. तिलोयपण्णत्ति, पृष्ठ सं. 140 १८. लोकप्रकाश, 12.16-17 १६. लोकप्रकाश, 12.34 २०. लोकप्रकाश, 12.15 २१. लोकप्रकाश, 12.19-30