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लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन यद्वा देवो हैमवतः स्वामी हैमवतस्ततः ।।" युगलिक मनुष्यों को आसनादि के लिए हेम (सुवर्ण) देने से अथवा हैमवत नामक अधिष्ठायक देव होने से यह क्षेत्र 'हैमवत' कहलाता है। इस क्षेत्र के मध्य में रत्नमय प्याले के समान गोलाकार वृत्त वैताढ्य पर्वत हैमवत क्षेत्र को दो भागों में विभाजित करता है-पूर्व हैमवत और पश्चिम हैमवत क्षेत्रा" रोहिता और रोहिताशा नाम की दो नदियाँ हैमवत क्षेत्र के पूर्व और पश्चिम दोनों विभागों को दक्षिणार्द्ध और उत्तरार्द्ध दो-दो भागों में विभाजित करती हैं। इस प्रकार से इस क्षेत्र के चार विभाग हो जाते हैं। इस क्षेत्र की उत्तर दिशा में दो सौ योजन ऊँचा रत्नमय हिमवान नामक पर्वत है। इस हिमवान्/हिमवंत पर्वत से चारों विदिशाओं में गजदंत आकार की चार दाढ़े हैं। इन चारों दाढ़ों पर सात-सात द्वीप हैं। इस प्रकार इस पर्वत पर २८ द्वीप हैं। इसी के समान शिखरी पर्वत पर भी २८ द्वीप हैं। अतः ये कुल मिलाकर ५६ अन्तर्वीप होते हैं। इसका विस्तृत विवेचन द्रव्यलोक अध्याय में किया है। इस क्षेत्र में लगभग ५६ हजार नदियाँ हैं। (3) हरिवर्ष क्षेत्र- महाहिमवान पर्वत के उत्तर दिशा में पर्यक (पलंग) समान आकार का हरिवर्ष क्षेत्र है। इस क्षेत्र के दोनों किनारे समुद्र तक पहुँचते हैं। इस क्षेत्र की उत्तर दिशा के अन्तिम भाग में निषध नामक लालसुवर्णमय पर्वत है। यह पर्वत चार सौ योजन ऊँचा और एक सौ योजन नीचे पृथ्वी में समाया हुआ है। (4) रम्यक् क्षेत्र- नीलवान पर्वत के उत्तर दिशा और रुक्मी पर्वत के दक्षिण दिशा के मध्य में रम्यक् क्षेत्र है। रम्यक नामक का अधिष्ठायक देव होने से यह क्षेत्र रम्यक् क्षेत्र कहलाता है।" सुवर्णमय और माणकमय प्रदेश और विविध जाति के कल्पवृक्षों के कारण से यह क्षेत्र अत्यन्त रमणीय लगता है। इस कारण भी इसका नाम 'रम्यक्' पड़ा। रम्यक् क्षेत्र के उत्तर दिशा में और हैरण्यवंत क्षेत्र के दक्षिण दिशा में रुक्मी नामक वर्षधर पर्वत है। यह पर्वत चाँदी के समान श्वेत एवं रुप्य है अतः इसका नाम रुक्मी है।६६ (5) हैरण्यवत क्षेत्र– रुक्मी पर्वत के उत्तर दिशा और शिखरी पर्वत की दक्षिण दिशा के मध्य हैरण्यवत नाम का क्षेत्र है, जो इन दोनों पर्वतों के बीच छिप कर बैठे हुए के समान दिखाई देता है। उपाध्याय विनयविजय हैरण्यवत नाम के पाँच कारणों का उल्लेख करते हैं
रुप्यहिरण्यशब्देन सुवर्णमपि वोच्यते। ततो हिरण्यवन्तौ द्वौ तन्मयत्वात् धराधरौ। रुक्मी च शिखरी चापि तद्धिरण्यवतोरिदम् । हैरण्यवंतमित्याहुः क्षेत्रमेतत् महाधियः ।।"