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जीव-विवेचन (3) अग्रभाग में स्थित मोक्ष या सिद्धालय को प्राप्त कर लेता है। ३३२
चौदहवें गुणस्थान में समग्र कायिक, वाचिक और मानसिक व्यापार अर्थात् योग का पूर्णतः निरोध हो जाता है। यह योग संन्यास है, यही सर्वांगीण पूर्णता है, चरम आदर्श की उपलब्धि है। इसके पश्चात् की अवस्था को जैन-विचारकों ने मोक्ष, निर्वाण, शिवपद एवं निर्गुण ब्रह्म स्थिति कहा
समीक्षण १. संज्ञा शब्द का प्रयोग जैन दर्शन में जानना, विचार करना, अभिलाषा होना, पहचानना,
नाम आदि अनेक अर्थों में हुआ है। किन्तु इसका विशेष प्रयोग आहार, भय, मैथुन एवं परिग्रह की अभिलाषा के लिए हुआ है। इसके आधार पर संज्ञा के चार प्रकार किए गए हैं। इनमें क्रोध, मान, माया, लोभ, लोक और ओघ संज्ञाओं को मिलाने पर संज्ञाएँ दस प्रकार की होती हैं तथा इन दस प्रकारों में सुख, दुःख, मोह, विचिकित्सा, शोक एवं धर्म संज्ञा को मिलाने पर संज्ञाओं की संख्या सोलह हो जाती है। ये सभी सोलह भेद अनुभव में आने के कारण अनुभव संज्ञा के अन्तर्गत आते हैं। जब जानने को संज्ञा कहा जाता है तो उसके मतिज्ञान आदि पाँच भेद किए जाते हैं। उपाध्याय विनयविजय ने ज्ञान संज्ञा और अनुभव संज्ञा दोनों का विवेचन करने के साथ संज्ञा के तीन भेद भी प्रतिपादित किए हैं- १. दीर्घकालिकी संज्ञा २. हेतुवाद संज्ञा ३. दृष्टिवाद संज्ञा। अतीत, अनागत एवं वर्तमान वस्तु विषयक ज्ञान दीर्घकालिकी संज्ञा कहलाती है। जीव जिस ज्ञान के द्वारा हित में प्रवृत्त और अहित से निवृत्त होता है उसे हेतुवाद संज्ञा कहते हैं। सम्यग्ज्ञान पूर्वक यथार्थ निरूपण करना दृष्टिवाद संज्ञा का कार्य है। इस प्रकार ये तीनों संज्ञाएँ ज्ञान से सम्बद्ध है। आहार आदि चार संज्ञाएँ प्रायः सभी संसारी जीवों में तब तक पाई जाती हैं जब तक वे मोह का क्षय नहीं कर दें। नारक जीवों में भय संज्ञा, तिर्यचों में आहार संज्ञा, मनुष्यों में मैथुन संज्ञा और देवों में परिग्रह संज्ञा अधिक होती है।
संज्ञाओं से युक्त जीवों को संज्ञी कहते हैं किन्तु जैन दर्शन में एक विशेष संदर्भ में बिना मन वाले को असंज्ञी कहा गया है एवं समनस्क को संज्ञी। उपाध्याय विनयविजय दीर्घकालिकी संज्ञा युक्त जीव को संज्ञी स्वीकार करते हैं, क्योंकि हेय-उपादेय की विवेक
शक्ति समनस्क जीवों में ही होती है। २. जैन दर्शन में इन्द्रिय के मुख्यतः दो प्रकार प्रतिपादित हैं- द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय। पुद्गलों
से निर्मित इन्द्रियों को द्रव्येन्द्रिय तथा आत्मप्रदेशों में रही जानने की शक्ति एवं व्यापार को