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लोकप्रकाश का समीक्षात्मक अध्ययन वचनयोग में मुख से कथन होता है, यही स्वरूपगत भेद है।" वचनयोग के भी चार भेद हैं।" वचनयोग के द्वारा जब वस्तु का यथार्थ कथन किया जाए तब वह 'सत्यवचनयोग', अयथार्थता सिद्ध करने वाला वचन 'असत्यवचनयोग', अनेक रूप वस्तु का एकरूपता से प्रतिपादन करने वाला वचनयोग 'मिश्रवचनयोग' तथा अर्थप्रतिष्ठा के बिना वस्तु का कथन करने वाला वचनयोग 'असत्यामृषावचनयोग' कहलाता है। योग सम्बन्धित शंका-समाधान
योग के सम्बन्ध में तीन शंकाएँ मुख्य रूप से उठती हैं१. वचनयोग और भाषा में क्या अन्तर है? २. श्वासोच्छ्वास को भी योग का भेद क्यों नहीं गिना जाता है? ३. क्या मनोयोग और वचनयोग काययोग से भिन्न है अथवा नहीं?
इन शंकाओं के समाधान क्रमशः इस प्रकार हैं१. भाषात्व गुण वाला द्रव्य 'भाषा' कहलाता है और भाषा प्रवर्तन का प्रयत्न विशेष वचनयोग
होता है। इस तरह भाषा और वचनयोग में अस्फुट भेद है। आवश्यक सूत्र की बृहवृत्ति में कहा गया है कि- 'प्राणी भाषा के पुद्गलों को काययोग से ग्रहण करता है और वचनयोग से
छोड़ता है।" २. व्यवहार में शरीर का वचन और मन के साथ जैसा विशिष्ट प्रयोजन द्रष्टव्य है वैसा
सम्बन्ध शरीर और श्वासोच्छ्वास के मध्य नहीं होता है। अतः श्वासोच्छ्वास को पृथक्
योग भेद स्वीकार न कर तीन योगों की गणना की जाती है। ३. मनोयोग और वचनयोग, काययोग से भिन्न नहीं है, अपितु काययोग विशेष ही है। जो
काययोग मनन करने में सहायक बनता है वह उस समय मनोयोग कहलाता है और जो काययोग भाषा के बोलने मे सहकारी बनता है वह उस समय वचनयोग होता है। अतः व्यवहार नय के लिए काययोग के तीन भेद किए हैं, निश्चय नय से ये दोनों काययोग से अभिन्न हैं।
मन, वचन एवं काया के कुल १५ योगों का यह निरूपण जैन दर्शन का वैशिष्ट्य है। योग का अर्थ यहाँ मन, वचन एवं काया की प्रवृत्ति है, जिससे आत्मप्रदेशों में स्पन्दन होता है। औदारिक मिश्र आदि योग के प्रकार ऐसे भी हैं जो नामकर्म के उदय से होते हैं। योग के सभी प्रकारों में वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम भी निमित्त बनता है।