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क्षेत्रलोक
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विभागों के नाम स्थानपरत्व के कारण अथवा शुभ-अशुभ परिणामों की तीव्रता-मन्दता के कारण अभिहित किए गए हैं।
लोक के सबसे नीचे होने के कारण अथवा इस क्षेत्र में द्रव्यों का अशुभ परिणाम अधिक है, अतः स्थानपरत्व एवं अशुभ परिणामों की तीव्रता से लोक का यह भाग अधोलोक कहा जाता है। इसी प्रकार लोक के ऊर्ध्व भाग में होने से अथवा इस क्षेत्र में द्रव्यों का शुभ परिणाम अधिक होने से लोक का यह भाग ऊर्ध्वलोक" कहलाता है तथा लोक के मध्य में आने से अथवा द्रव्यों के मध्यम परिणामों की अधिकता होने से लोक का यह भाग मध्यलोक कहा जाता है। तिरछा विस्तार होने से मध्यलोक को तिर्यग्लोक भी कहते हैं। तीनों लोकों कामध्यभाग
लोकात्मक पुरुष के कटि प्रदेश को तिरछालोक अथवा मध्यलोक कहा गया है। इसी मध्यलोक के मध्यभाग रूचक प्रदेश से दिशा और विदिशा निकलती है। चौथी और पाँचवीं नरक भूमियों के बीच के अन्तर का आधा भाग अधोलोक का मध्य कहा जाता है। ऊपर ब्रह्मलोक के नीचे रिष्ट नामक प्रतर में ऊर्ध्वलोक का मध्य भाग है। वातवलय
सम्पूर्ण लोक चारों ओर से तीन प्रकार के वातवलयों से मेखला की तरह परिवेष्टित है। ये वातवलय वायुकायिक जीवों के शरीर स्वरूप स्थिर स्वभाववाले वायुमण्डल हैं, जिनके दाब से इस लोक का सन्तुलन बना रहता है।
___ सर्वप्रथम धनोदधिवातवलय, फिर घनवातवलय और अन्त में तनुवातवलय ये तीन वातवलय हैं। तीनों वातवलयों की मोटाई लोक के तलभाग में २०-२० हजार योजन है और सातवें नरक के दोनों ओर के पार्श्व भागों में क्रमशः सात, पाँच और चार योजन है। मध्यलोक के पार्श्वभाग में क्रमशः पाँच, चार और तीन योजन है। आगे बढ़ते-बढ़ते ब्रह्मलोक के पार्श्वभाग में क्रमशः सात, पाँच और चार योजन तथा लोकान्त के पार्श्व भागों में पाँच, चार और तीन योजन है। लोक शिखर पर वातवलयों की मोटाई क्रमशः दो कोस, एक कोस और कुछ कम एक कोस है। (द्रष्टव्य पृष्ठ सं. २६०) दिशाऔर विदिशाओंकास्वरूप
मध्यभागे समभूमिज्ञापको रूचकोऽस्ति यः।
स एव मध्यलोकस्य मध्यमुक्तं महात्मभिः ।। दिग्विदिग् निर्गमश्चास्मान्नाभेरिव शिरोद्गमः ।।"